Tuesday, January 31, 2006

प्रेम-संवाद

orkut का एक यादगार संवाद...

विकास : हुश्न के झांसे में न आओ, मात खाओगे
ध्यान से देखो तो चाँद भी पत्थर का है.

अलोक: चाँद अगर पत्थर है तो क्या
देखो तो बादल सिर्फ़ धुँआ है.
चाँद भी तब-तब चुप जाता है
बादल ने जब-जब उसे छुआ है.

विकास: डालो भले ही फूल तुम...उस हँसी की राहों में
उसको मगर है यह यकीं...की हर डगर पत्थर का है.


अलोक: पत्थर की है हर डगर पर
चलना उसपर दूभर नही है
उन डगरों के हर पत्थर पर
इन फूलों को मैं बिछा दूंगा.

विकास: तिनके न तुम जुटाओ यूँ आशियाने के लिए...
चाहे दिखे या न दिखे, हर घर मगर पत्थर का है.


अलोक: महल भी हैं सब पत्थर के पर
रहना सारी उमर वहीँ है,
इन तिनको से आशियाने नही
उन महलों को सजा दूंगा.

विकास: nice lines.
keep it up!!

पर शायद विकाश सही थे...मेरी बातें तो वास्तविकता से परे थी.

तुम

तुम्हे तलाशा तरु-तरु में
कली-कली में,बाग़-बाग़ में,
नदी-नदी के लहर-लहर में
लहर-लहर के झाग-झाग में;

तुम्हे पुकारा डगर-डगर पर
गली-गली में,गाँव-गाँव में,
नगर-नगर के महल-महल में
महल-महल के छाँव -छाँव में;

तुम्हे सोचा चित्र-चित्र में
परियों के भी मित्र-मित्र में,
कथा-कथा के पात्र विचित्र में
सावित्री-सीता के चरित्र में;

तुम्हें पाया अपने चिंतन में
अपने मन में अपने चेतन में,
अपने ह्रदय के कम्पन में
अपनी नाडी के स्पंदन में।

Sunday, January 29, 2006

नन्हा-खिलाड़ी

तुमने मुझको छेड़ दी साकी
मैं ख़ुद पर ही शरमा गया,
मैं तो कुछ नही कह सकता
पर ये नन्हा खिलाड़ी आ गया.

गौर से देखो इस नन्हे को
और पूछो ये क्या कहता है,
मेरे ह्रदय के तार-तार में
ओ साकी बस तू रहता है.

बैठा मैं हूँ इस उपवन में
फूल खिले हैं सुंदर-सुंदर,
मुझे इन फूलों से क्या लेना
झाँक रहा मैं तेरे अंदर.

इस तरह मत देखो साकी
इस नन्हे की ओर कभी,
खाली हाथ अभी तक लौटे
जो गए इस ओर सभी.

अच्छा तो अब मैं चलता हूँ
धन्यवाद तुमको कहता हूँ,
माफ़ करना ये बच्चा है
पर दिल का बिल्कुल सच्चा है।

-what do I mean by this poem-

सपने जो पूरे ना हुए

चित्रों की ये विचित्र दुनिया मुझे बचपन से ही बहुत भाती थी. मेरी माँ कहती थी की जब मैं नन्हा था तो आँगन में लेटे-लेटे ही नन्ही उँगलियों से आसमान में अजीब-अजीब चित्र उकेरा करता था. धीरे-धीरे मेरी ललक तीव्र होती गई.....और एक दिन मैंने तुलिका उठा ही ली. फिर किसी जंगली जानवर की कल्पना करने लगा.
चित्र पूरा करने के बाद मैं बहुत खुश हुआ...और वो चित्र मैंने अपने एक अंकल को दिखायी और पूछा...
अंकल,अंकल आपको डर लग रहा है.
उन्होंने पहले तो चित्र को फिर मुझे विचित्र नजरों से घूरा और कहा....
भला मैं क्यों डरूं इस फल के चित्र से.
मैं उदास हो गया था क्योंकि मैं तो इसे बाघ समझ रहा था. जिसे बड़े लोग समझ नही पा रहे थे. मेरे अंदर का नन्हा चित्रकार उभरने से पहले ही कुंद हो गया था. मैंने इसके बाद कभी तुलिका नही पकड़ी .
दुनिया के रंग पन्नो पर दिखा न सके तो क्या;
हम तो अपनी कलम से भावनाओं को रंगते हैं।

Saturday, January 28, 2006

असफलता भी कुछ बतलाती है

असफलताओं से हम टूट क्यों जाते हैं,
जीवन से फ़िर हम रूठ क्यों जाते हैं.
आसपास के सफल माहौल को देखकर,
उस माहौल से हम उठ क्यों जाते हैं.

अगर हम बार-बार सफल होते तो,

अगर हम हर बार सफल होते तो

जीवन में तरंग ना उठ पाता,

परिवर्तन ना कोई रह पाता.
उस तालाब के जल की तरह,
स्थिर सा वह भी रह जाता.

फिर गति क्या रहती जीवन में,

राहों में कोई मोड़ ना पाते,
रह जाते चलते सीधी डगर पे,
अगर उसे ये तोड़ ना जाते.

बढ़ तो जाता फिर गरूर अपना,

चढ़ जाता कुछ शरूर अपना.
अपने को फिर हम आँक ना पाते,
औरों के अंदर झाँक ना पाते.

असफलताएं ये कुछ सिखलाती हैं,

मार्ग नए कुछ दिखलाती हैं.
दर्प-दंभ मन के अंदर है जो,
तोड़-तोड़ उसे बिखराती हैं.

ताकि तुम भी नव उमंग भर,

विधि को बस में करना सीखो.
सफलता की चोटी को छूने,
पत्थरों से भी लड़ना सीखो.

अन्दर की झिझक

बात है तब की जब मैं jnv में दाखिला लिया था,कक्षा का वो पहला दिन था ......

अध्यापिका और लड़के-लड़कियों से भरी उस कक्षा में मैं अपने आप को अकेला पा रहा था। पर मेरे अंदर के मनोभावों को वो समझ गई थी. वो मेरे पास आई और ...फिर स्नेहपूर्वक पूछी....चलो अपना नाम बताओ ...
अलोक..अ अ अलोक...मैंने बिल्कुल ही फुसफुसाते हुए कहा। मैं अंदर से काँप रह था.चलो कुछ जोर से कहो ताकि सब सुन सके...अद्यापिका बोली. मैंने जोर से बोलने की कोशिश की...पर मेरे शब्द गले से निकल नही पा रहे थे, अधर सूख सा गया था। मुझे दिन में भी तारे नजर आने लगे, मैं अपनी मनोस्थिति पर काबू नही रख पाया था.
वो मेरे झिझक को समझ गई....और स्नेह से बोली...चलो अपना नाम ब्लैक बोर्ड पर लिख दो. मैं वहा तक पहुँचा...पर ये क्या,मैं कुछ नही लिख पा रहा था। मुझे अपना नाम भी याद था और मुझे अच्छी तरह लिखना भी आता था । पर हाथों में अजीब कम्पन थी, दिल की तीव्र धरकन थी। एक झिझक ही थी वह जो मुझे ख़ुद को व्यक्त नही करने दे रही थी । मेरे दोस्त लोग मुझे समझे नही...और मैं अपनी झिझक का शिकार बन गया.
आज भी मेरे अन्दर वही झिझक बरक़रार है...और आज भी मेरे दोस्त मुझे समझ नही पाते हैं.....और मैं बार-बार शिकार बन जाता हूँ.

मैं और पत्थर

तुम सब मुझको समझे पत्थर
खुद मैं ही जब खाता ठोकर,
शायद मैं एक मोम भी था
देखा नही किसी ने छूकर ।

छुआ नही अब मत ही छूना
समझ मुझे एक पत्थर ही हूँ,
समझो मत मूझे मधु का प्याला
किसी काल का खप्पर ही हूँ ।

इस पत्थर को छू-छू कर
समय व्यर्थ न नष्ट करो,
खप्पर में मदिरा भर-भर
मदिरालय मत भ्रष्ट करो ।

गर पूजोगे इस पत्थर को
कभी मिले भगवान तुझे,
पर पढोगे इस पत्थर को
तभी मिले कुछ ज्ञान तुझे।

क्योकि पत्थर पर लिखा है
किसी बीती अतीत का वर्णन,
इस पत्थर में ही छुपा है
हर किसी का कष्ट निवारण।

पत्थर ही हूँ मैं तो क्या
बन चक्की ये जग पालूँगा,
खप्पर ही हूँ मैं तो क्या
सबके ऊपर छत डालूँगा।।

अभी तो सिर्फ शुरुआत है

अभी-अभी स्टार्ट किया हूँ
क्या कहूं अपने बारे में,
ये मेरी दुनिया है दोस्तों
जानो कुछ मेरे बारे में.