Wednesday, September 30, 2009

डांडिया की रात

कार्यक्रम की जान थी
कार्यक्रम की शान थी
नृत्य में महान थी
किंतु परेशान थी ;
चाहती थी वह
कि कोई टोके उसे
कोई उसका साथ दे
लेकर डांडिया हाथ में;
संगीत चलता रहा
पैर थिरकते रहे
मगर किससे कहे
कि कोई उसका साथ दे
लेकर डांडिया हाथ में ;
इसीलिए परेशान थी ;
कार्यक्रम की जान थी
कार्यक्रम की शान थी ।

वह डांडिया की रात थी
वह पहली मुलाकात थी,
मुझे कुछ संकोच हुआ
किंतु मैंने सोचा कि
डांडिया के ही बहाने
उनसे मुलाकात कर लूँ ,
उनसे आज बात कर लूँ;
डांडिया लिए हाथ में
पहली मुलाकात में
नृत्य करने लगा
मैं उनके साथ में ;
सगीत चलता गया
पैर थिरकते गये
हो चुका था प्यार मुझे
मगर कैसे कहें,
'कि तुम मेरा साथ दो
मेरे हाथों में हाथ दो। '

वह डांडिया की रात थी
कितनी अजीब बात थी
उस डांडिया के ब्रेक में
उसने नमस्ते कहा,
और मुझसे पूछा कि
कहिये हाल-चाल क्या है?
'अपनापन तो ठीक है
पर ये आप-आप क्या है?'
मैंने उनसे पूछ दिया
'कहिये सच्ची बात क्या है?'
"आप-आप का मतलब मुझसे पूछते हैं
आप तो बहुत बड़े मजाकिए लगते हैं;
आप सचमुच के ही कवि हैं
जैसा कि आपके दोस्त मुझसे कहते हैं ।"

अब हाल तो मेरा बुरा था
भीतर ही भीतर डरा था
लव-ट्रेंगल की फिल्मी-कहानी याद आ गयी थी,
सच कहता हूँ दोस्तों! मेरी नानी याद आ गयी थी ;
तभी मेरा दोस्त भी वहाँ आ गया
और चुटकी लेते हुए मुस्कुरा दिया,
'कैसी है तेरी भाभी ,
मेरी शादी होनेवाली है '
समस्त खुशियों का 'जीरो साइज़' हो गया था
बहुत ही बड़ा ये सरप्राइज़ हो गया था ;
वह डांडिया की रात थी
पर किस्मत नहीं साथ थी
संगीत चलने लगा
पैर थिरकने लगे
मगर किससे कहें
कि कोई मेरा साथ दे
लेकर डांडिया हाथ में ।।

Wednesday, September 23, 2009

चाँद और दिनकर

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
'दिनकर' भी कितना आदमी अजीब था;
कर्ण और ऊर्वशी पर तो ग्रंथ लिख दिया,
मेरे लिए उसे कोई शब्द नहीं मिला ???

जानता
है तू कि मैं कितना पुराना हूँ ,
मैं चुका हूँ देख 'रश्मिरथी' जनमते-मरते;
और लाखों बार धर्मराज को भी
'कुरुक्षेत्र' में पितामह से बातें करते।

'परशुराम की प्रतीक्षा' के काल गुजरे
तो 'शक्ति और क्षमा' मैंने राम का देखा;
दुर्योधन चला जब हरि को बाँधने
तो विकराल रूप घनश्याम का देखा ।


मैं
न केवल 'युद्ध और शांति' ही देखा था,
'इतिहास के आंसू' भी बहते हुए देखा था;
'ऊर्वशी' को मैंने प्यार करते हुए देखा था
स्वयं युगधर्म को 'हुँकार' भरते हुए देखा था।

इतना
कहकर चाँद उदास हो गया,
कुछ पल चुप रहा और फ़िर कहा:

'संस्कृति के चार अध्याय' समाप्त हो गए
ये पेड़-पौधे सारे अब लोहे के हो गए ;
इसे हरा कर दे कोई गीत अब कहाँ है,
हिन्दी-साहित्य का वो अतीत अब कहाँ है ?


** दिनकर के जन्मदिन पर समर्पित**

Monday, September 21, 2009

नियंत्रणहीन

क्या मैं केवल दो यंत्रों का पुंज-मात्र हूँ ?
दो परस्पर विपरीत यंत्र...

जो अपने ही आप चलता है,
एक तुम्हें याद करता है,
एक तुम्हें भूल जाता है

आज भी याद आते हैं
वो पीपल, वो बरगद;
धान के खेत लहलहाते हुए,
गौरैयों के झूंड को गाते हुए,
और वहीं पास बहती नदी में
लहरों को जलतरंग बजाते हुए।
प्रकृति की इस अनोखी
अनुपम संगीत को,
सुननेवाला कौन था?
तुम थी और मैं था ।
वो समय कहाँ खो गया
क्या से क्या हो गया ;
अतीत को सह-सहकर
मैं कितना दीन हो गया हूँ,
शायद नियंत्रणहीन हो गया हूँ।
अब मैं केवल दो यंत्रों का पुंज-मात्र हूँ,
दो परस्पर विपरीत यंत्र...
जो बिना मेरी अनुमति के चलता है;
एक तुम्हें याद करता है,
एक तुम्हें भूल जाता है ।।

Sunday, September 20, 2009

दो कबूतर


मेरे कमरे में बने घोंसले
मुझसे अक्सर कहा करते हैं;
जब हम नहीं रहते कमरे में
दो कबूतर आकर रहते हैं ।

कल
की ही बात थी,
जब मैं अपने कमरे में आया;
दोनों कबूतरों ने अपना पंख फरफराया
और खिड़की से बाहर चला गया ।
मेरी बहुत इच्छा थी,
उन्हें पुकारूं ,उन्हें बुलाऊं;
पल दो पल वे बातें करें
मेरी तन्हाई को दूर करें ।
पर दोनों प्रेम में मतवाले थे,
उनको मेरी फिक्र नहीं थी;
क्या वापस वे आनेवाले थे ,
इसकी भी कोई जिक्र नहीं की।
किंतु इनके घोंसले को
ज्यों का त्यों मैंने छोड़ दिया ;
आज भी जब बाहर निकला
खिड़की खुली ही छोड़ दिया ।।

Monday, September 14, 2009

हिन्दी दिवस क्यों रख दिया है ?


सुबह-सवेरे देखा, आया एक SMS है;
"मुबारक आलोकजी! आज हिन्दी दिवस है " ।

'हिन्दी दिवस का क्या करूँ,
मेरा बहुत ही बुरा हाल है;
रात्रि-जागरण करते-करते
दोनों आँखें लाल-लाल है ।'
इतना सोचा और आँखें अपनी धोकर आ गया,
अंग्रेजी की पुस्तकों को आंखों से लगा लिया।

यही वातावरण तो संस्थान में गत वर्ष था,
जब देश मना रहा हिन्दी दिवस पर हर्ष था;
हम मिडसेम के लिए पढ़ाई कर रहे थे ,
IIT भाषा में 'इन्फी मगाई' कर रहे थे ।

मुझे शिकायत है हिन्दी दिवस बनाने वालो से,
जिसे हमदर्दी भी नहीं थी, हम मनाने वालों से ;
अरे! जनवरी में रखते, फरवरी में रखते,
मिडसेम के समय ही क्यों रख दिया है ?
जब अंग्रेजी में पूरा पाठ्यक्रम बनाया,
फिर हिन्दी दिवस भी क्यों रख दिया है ?

Sunday, September 06, 2009

IIT की जिन्दगी

इस बार 'वाणी' में फ्रेशी जनता के लिए जो कविता प्रस्तुतीकरण प्रतियोगिता हुई, उसके निर्णायक चरण में IIT की जिन्दगी पर कविता सुनानी थी. प्रतियोगिता बहुत शानदार रही, मैंने भी एक कविता सुनाई थी, इसे यहाँ लिख रहा हूँ .....

उस हसीना की यादों में पूरी रात जागा था ,
और सुबह होते ही झटपट class भागा था ;
lecture में बैठे-बैठे, मैं सोने लगा था,
अपने आप पर नियंत्रण खोने लगा था ।

मगर प्यारे prof ने,ये होने नहीं दिया
पलभर के लिए भी मुझे सोने नहीं दिया ;
lecture से लौटकर बिस्तर पर सो गया,
उसके हसीं सपनों में फ़िर से खो गया ।

नींद खुली मेरी तो बारह बज रहे थे,
lan-ban होने के लक्षण लग रहे थे;
झटपट में मैंने अपना GPO खोला,
तभी किसी ने PA पर आकर बोला:
" पप्पू का जन्मदिन है, सब बंप्स लगाने आ जाओ,
उसके बाद जितना चाहो, कैंटीन में जाकर खाओ !"

पेट में चूहे कूद रहे थे भूख के कारण
GPO को छोड़ किया रुद्र रूप धारण;
फिर जाकर पप्पू को जमकर लात लगाया,
मस्ती करके कमरे में तीन बजे आया ।

ये IIT की जिन्दगी है,
नींद का नहीं यहाँ ठिकाना;
रोज-रोज ये रात्रि-जागरण,
हे ईश्वर! तू मुझे बचाना(इनका प्रयोग करना था)

जागते-जागते सोच रहा था कल के नुकसान पर ,
बड़ी मुश्किल से आया एक-एक चीज ध्यान पर;
Quiz छूटा, Lab छूटा, एक class छूट गया,
और 'वाणी' का एक 'मुलाकात' छूट गया ।

रोहित नाराज़ होगा, भावना नाराज़ होगी ,
पता नहीं रश्मिजी मुझसे क्या कहेगी ;
फिर मैंने सोचा कि चुप तो नहीं रहूँगा
मुझसे वे पूछेंगे तो झूठ-मूठ कह दूँगा :
Quiz था ,Lab था, एक presentation था,
एक नहीं तीन-तीन Assignment submission था;
ये IIT की जिन्दगी भी जिन्दगी है क्या?
साँस लेने तक की, फ़ुरसत नहीं यहाँ ; [इस दो पंक्ति का प्रयोग कविता में करना था]
थोडी फ़ुरसत मिली, बस यहीं आ रहा हूँ ;
आप सबको अपनी ये कविता सुना रहा हूँ ।।

Thursday, September 03, 2009

क्यों लक्ष्य बदल जाता है ?










जीवन
-पथ पर चलते-चलते
क्यों अक्सर ये हो जाता है ?
कभी राह बदल जाता है ,
कभी लक्ष्य बदल जाता है

मैंने देखा एक खिलाड़ी
खेल के उस मैदान पर,
गोल-पोस्ट के समीप जो
खड़ा था सीना तानकर ;

खेल बड़ा ही घमासान था
गोल-पोस्ट था सबका निशाना,
पर उसने अपने प्रयास से
रोका गेंद का आना-जाना;

उस खेल का नियम गजब था,
वही गोल-पोस्ट, वही जगह था;
बदल गया पर वही खिलाड़ी
जो खड़ा वहाँ अबतक था

मैंने देखा वही खिलाड़ी
खेल के उसी मैदान पर,
गेंद को लेकर भाग रहा था
गोल-पोस्ट को लक्ष्य मानकर;

जीवन भी एक खेल ही है
और अक्सर ये हो जाता है,
कभी राह बदल जाता है ,
कभी लक्ष्य बदल जाता है