Sunday, November 22, 2009

मेरी परछाई अब चंचल है







खिलखिलाती धूप में
हँसती हुई परछाईयाँ
इस नदी की धारा में
जहां आज भी गति है
जहां आज भी दिशा है
और मैं दिशाहीन हूँ ।

मैं एक दिशाहीन हूँ
इन दिशाओं में भटककर
इस तट पर बैठ गया हूँ,
पत्थर का एक टुकड़ा
मेरी मुट्ठी में कैद है,
जिसके अलावा मेरे पास
कुछ और नहीं शेष है;
इस पत्थर को थामे हुए
इस सुबह की धूप में
इस नदी की धारा में
अपनी परछाई देख रहा हूँ ,
जो धारा के साथ-साथ
मंद-मंद हिल रही है,
जहां आज भी गति है
जहां आज भी जान है
और मैं बेजान हूँ ।

मैं एक बेजान हूँ
निर्जीव, निष्प्राण हूँ
इस तट पर बैठा हुआ
चिंतित अपनी परछाई पर,
जो धारा के साथ-साथ
मंद-मंद हिल रही है,
जहां आज भी गति है
जहां आज भी जान है;

फिर भी मुझे चिंता है
इसके मंद गति की,
मेरे पास शेष मात्र
केवल एक पत्थर ही,
इसी की ओर देखता हूँ
इसे भी नदी में फेंकता हूँ
और लेकर साँसें गहरी
आश्वस्त होकर सोचता हूँ :
इस धारा में अब हलचल है
मेरी परछाई अब चंचल है
मेरी परछाई अब चंचल है !!