मैं मृग-मानव मरूस्थल का
बूँद-बूँद पानी को तरसा ।
दूर कहीं जल-कुंड कोई था
और पेडों की परछाई थी ,
मन मेरा था मुरझाया सा
मुस्कान तनिक अब आयी थी;
प्रफुल्लित मन, तीव्र गति से
पास मैं उस जल तक आया था,
मृग-तृष्णा वह मेरी थी जो
भूमि को मृग-जल बतलाया था;
जल के बदले स्थल पर ही
उन पेडों की परछाई थी,
मिलते नही जल मरुस्थल में
सिर्फ़ यही एक सच्चाई थी.
सच पर मैं बिना किए भरोसा
तृष्णा को था समझा सच्चा,
मैं मृग-मानव मरूस्थल का
बूँद-बूँद पानी को तरसा ।।
Saturday, April 29, 2006
कर्ण के संवाद
these are my fav six lines from rashmirathi...
it is the dialoge of karn to shalya...
यह देह टूटने वाली है
इस मिटटी का कबतक प्रमाण,
मृत्तिका छोड़ उपर नभ में
भी तो ले जाना है विमान.
कुछ जुटा रहा सामान
कमंडल में सोपान बनाने को,
ये चार फुल फेंके मैंने
उपर की राह सजाने को.
ये चार फुल हैं मोल किन्ही
कातर नयनो की पानी के,
ये चार फुल प्रछन्न दान
है किसी महाबल दानी के.
ये चार फुल मेरा अदृष्ट
था हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फुल पाकर प्रसन्न
हँसते होंगे अन्तेर्यामी.
समझोगे नही शल्य इसको
यह करतब नादानों का है,
ये खेल जीत के बड़े किसी
मकसद के दीवानों का है.
जानते स्वाद इसका वे ही
जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया से
अलग खड़े जो जीते हैं....:)))
it is the dialoge of karn to shalya...
यह देह टूटने वाली है
इस मिटटी का कबतक प्रमाण,
मृत्तिका छोड़ उपर नभ में
भी तो ले जाना है विमान.
कुछ जुटा रहा सामान
कमंडल में सोपान बनाने को,
ये चार फुल फेंके मैंने
उपर की राह सजाने को.
ये चार फुल हैं मोल किन्ही
कातर नयनो की पानी के,
ये चार फुल प्रछन्न दान
है किसी महाबल दानी के.
ये चार फुल मेरा अदृष्ट
था हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फुल पाकर प्रसन्न
हँसते होंगे अन्तेर्यामी.
समझोगे नही शल्य इसको
यह करतब नादानों का है,
ये खेल जीत के बड़े किसी
मकसद के दीवानों का है.
जानते स्वाद इसका वे ही
जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया से
अलग खड़े जो जीते हैं....:)))
Friday, April 28, 2006
वक्त का रथ
वक्त का रथ अनवरत
पथ पर मगर चलता रहा।
सोचा था मैं वक्त बहुत ये
एक पर्वत को पिघला दूँगा,
बनकर भगीरथ इसी धरा पर
एक गंगा कोई बहा दूंगा।
वक्त की परवाह नही की
अपनी धुन में बेखबर था,
चाल वक्त की चपल हैं कितनी
मुझे नहीं मालूम मगर था.
चलते-चलते ठोकर खाया
देखा मैंने पीछे मुड़कर,
वक्त समीप तब मैंने पाया
पीछा करता जो छुप-छुपकर.
हुई वक्त से होड़ हमारी
वक्त को मैंने ललकारा,
ताकत झोंक दी अपनी पूरी
वक्त से फिर भी मैं हारा.
वक्त के आगे विवस हो
हाथ मैं मलता रहा,
वक्त का रथ अनवरत
पथ पर मगर चलता रहा...
पथ पर मगर चलता रहा।
सोचा था मैं वक्त बहुत ये
एक पर्वत को पिघला दूँगा,
बनकर भगीरथ इसी धरा पर
एक गंगा कोई बहा दूंगा।
वक्त की परवाह नही की
अपनी धुन में बेखबर था,
चाल वक्त की चपल हैं कितनी
मुझे नहीं मालूम मगर था.
चलते-चलते ठोकर खाया
देखा मैंने पीछे मुड़कर,
वक्त समीप तब मैंने पाया
पीछा करता जो छुप-छुपकर.
हुई वक्त से होड़ हमारी
वक्त को मैंने ललकारा,
ताकत झोंक दी अपनी पूरी
वक्त से फिर भी मैं हारा.
वक्त के आगे विवस हो
हाथ मैं मलता रहा,
वक्त का रथ अनवरत
पथ पर मगर चलता रहा...
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