Tuesday, February 27, 2007

अतीत

भयावह सा कोई अतीत मेरा

भविष्य दिखता धुंधला सा,

बीच फंसा कोमल सा मन

जाता है अब तिलमिला सा;

अतीत के किसी दर्पण पर

देखकर अपनी तस्वीर कोई,

भविष्य के पन्नो पर

लिखता हूँ तकदीर नई;

अतीत से जो भी सीखता हूँ

वर्तमान में सही होता है

वर्तमान अतीत में बदल जाता

और वो अपना मूल्य खोता है;

ख़ुद को समझाता हूँ

कि जो है वो सही है,

दुनिया देखकर चिल्लाता हूँ

कुछ भी बेहतर नहीं है;

अतीत से लिपटा हुआ

अतीत को ढोता हुआ,

वर्तमान से हो विमुख

अतीत पर रोता हुआ;

ये अतीत का भूत मूझे

अंदर से खा जायेगा,

जब तक कोई वर्तमान का

पारखी नही आ जायेगा…।


-Poet may be suffering from personality disorder- it seems so-

Friday, February 23, 2007

प्रतिशोध

जख्मों की फूस
के बंडल में,
बदले की चिंगारी जली
प्रतिशोध का ज्वाला
धधक उठा....
जीवन की सुंदर
बगिया में
जाने कैसे आग लगी
प्रतिशोध का ज्वाला
धधक उठा...
पत्थर पत्थर से टकराया
चिंगारी कोई सुलग गया
लकड़ी का एक अदना टुकड़ा
जलता हुआ मशाल बना,
जंगल-जंगल आग लगी फ़िर
सृष्टि जलकर राख हुआ..

ये प्रतिशोध किसी पत्थर का
या उस तरु की टहनी की होगी,
जिसने सुलगाया दावानल ये
कुछ बातें कहनी ही होगी..

इन प्रतिशोध की ज्वाला में
धधक रहा सम्पूर्ण जगत
कभी तो बादल बरसे इसपर
या कोई इन्द्र हो आज प्रकट.....

-Don't unerestimate your action-


Sunday, February 18, 2007

प्रायश्चित











जुर्म की डगर पर चलकर
क्या मिला बोलो ये तुझको,
गलत राह यह अपनाकर
खुशी मिली क्या तेरे दिल को;

हे नर-व्याघ्र तुम जगत में
प्रायश्चित के भागी हो,
तुम कलंक इस मनुजता के
मेरे लिए एक अपराधी हो;

झाँक कर देख ले मन में
अब भी तुझमें सच्चाई है,
दिल से इतने बुरे नहीं तुम
अब भी तुझमें अच्छाई है;

अपने अंदर को जरा टटोलो
ख़ुद को इक आवाज़ लगा दो,
कुछ तो तुम प्रयास करो
अंदर सोया इंसान जगा दो ।।

-Your inner soul begging a redemption from you-

Thursday, February 15, 2007

खंजर

एक लोहा था बहुत नरम
सब लोहों का मित्र परम
एक दिन भट्टी में कूद गया
तपकर हो गया गरम-गरम,

एक हथोडा चला फ़िर उसपर
विस्तृत उसका आकार हुआ
खंजर का स्वरुप लिया वह
चमकीला उसका धार हुआ.

Monday, February 12, 2007

बदलाव

एक बदलाव
बदल देती परंपरा
नियम जाती चरमरा
रिश्तों को तोड़ देती है
कोई ज़ंग छेड़ देती है,
किसी एक सपने के लिए
कितने सपने टूट जाते हैं
कोई एक आगे आता है
कितने छूट जाते हैं,
क्या परंपरा सही नहीं है
जो बातें गाँधी ने कही है
सच तो ये है
की कमजोर तुम हो
ख़ुद को नहीं बदल सकते हो
इसलिए दुनिया बदलने चलते हो...
दुनिया बदलते ही रहते हैं
अगर बदलना कुछ चाहते हो
तो पहले ख़ुद को बदलो
फ़िर दुनिया भी बदलेगा
इक परंपरा पर चलेगा
इक बदलाव आएगा
कोई सैलाव छायेगा
नहीं कोई रिश्ते टूटेंगे
नहीं कोई ज़ंग फूटेंगे
फ़िर ये जग अपना होगा
हर इक का सपना होगा....

-hmmm poet is philosophical here-


Sunday, February 11, 2007

गुलाब का फूल














ये गुलाब का फूल
प्रतीक है सौंदर्य का
सुंदरता की भाषा है
प्रेम की परिभाषा है
हर दिल की अभिलाषा है
चाहत है, इक आशा है,

इनकी पंखुरियों की ताजगी
मन में रौनकता ला देती है
विचारों में एक
नयापन सा जगा देती है,
भावनावों का समंदर
ह्रदय में बहा देती है
आत्मा का परमात्मा से
मिलन करा देती है.

ये गुलाब का फूल
जिसे देख हम जाएँ भूल
अपने अंदर के अवसादों को
हर छिपे बुरे इरादों को
ये गुलाब का फूल
जो सुंदरता की भाषा है
प्रेम की परिभाषा है।

Monday, February 05, 2007

पर लिखता रहूँगा

कुछ सही
कुछ ग़लत
कुछ इधर की
कुछ उधर की
कभी यहाँ
तो कभी वहाँ
मैं लिखता रहूँगा....

कभी ख़ुद की कहानी
कभी औरों की जुबानी
कभी कोई पहेली
कभी चंपा-चमेली
कभी गाथा किसी की
कभी दुविधा सभी की
मैं लिखता रहूँगा....

फूछ्ना मत
कि मैं कौन हूँ
क्यूँ मौन हूँ,
आवाज़ बचा रखता हूँ
सिर्फ़ तुझे परखता हूँ
कुछ सही फ़िर कुछ ग़लत
आकर तब मैं लिखता हूँ,
शब्द की घुटन कौन सहे
कब तक कोई मौन रहे
कोई सुननेवाला न हो
बोलो फ़िर वो कैसे कहे,
ये कलम एक माध्यम है
अपनी घुटन मिटाने का
अपना जादू दिखाने का
शब्दों में उलझाने का
मैं बार-बार
तुझसे पिटता रहूँगा
पर लिखता रहूँगा।

Sunday, February 04, 2007

व्यक्तित्व














ये व्यक्तित्व
बतलाता है आपके विचार
बतलाता है आपके व्यवहार,
और लाता है आपमें
एक अद्भुत निखार;
ये पारदर्शी होता है
दूर से ही झलक जाता है
नजरों में छलक जाता है
जब भी एक दरश पाता है.

तो क्या वो
शीशे की तरह तुनक होता है
जो गिरते ही अपना अस्तित्व खोता है,
ये तुनक नहीं
गीली मिटटी की तरह
मुलायम होता है
जो गिरकर अस्तिस्त्व नाहीं
अपना आकार खोता है,
गीली मिटटी जो आकार चाहे पा सकता है
उसे कैसा भी बनाया जा सकता है,
निर्भर करता है कुम्भकार पर
वो कितना ध्यान देता है
किसको कैसा रूप देता है,
सचमुच ही व्यक्तित्व
खत्म नहीं होता
बस स्वरुप बदलता है,
पर जो चोट खाकर भी
अपना आकार नहीं खोता है
वो कोई परिपक्व होता है
ये परिपक्वता आती है
जब माटी आग में तपता है
व्यक्तित्व ठोकरें सहता है...
आज फ़िर कोई मिटटी पककर तैयार है
फ़िर से हर्षित कोई कुम्भकार है॥

-Poet fantasy about his personality-