Wednesday, November 26, 2008

आशा और विश्वास


जाने क्यों तुमसे मिलने की
आशा कम विश्वास बहुत है।

अपने अन्दर युगों-युगों से
सागर प्यास जगाया था,
जल की कुछ बूंदों को वह
दरिया से आस लगाया था;
दरिया जब पानी लाया तो
प्यासा सागर सोच रहा है,
अब पीने की चाह नहीं है
पानी मेरे पास बहुत है ।

जाने क्यों तुमसे मिलने की
आशा कम विश्वास बहुत है।

जब उषा काल में देरी थी
वो रात बड़ी अँधेरी थी,
उस अन्धकार के कम्बल में
आसमान तब सिमट गया था;
नभ में आयी चांदनी तो
आसमान ये सोच रहा है,
अब चंदा की चाह नहीं है
तारे मेरे पास बहुत हैं ।

जाने क्यों तुमसे मिलने की
आशा कम विश्वास बहुत है।

नील गगन की सीमा पाने
दूर क्षितिज से गले मिलाने,
या फिर किसी शिखर को पाने
क्या उसकी मंजिल वही जाने ;
वो आसमान में थका पखेरू
शिखर देख अब सोच रहा है,
अब उड़ने की चाह नहीं है
मंजिल मेरे पास बहुत है ।

जाने क्यों तुमसे मिलने की
आशा कम विश्वास बहुत है।

Monday, November 24, 2008

क्या आज लिखूं ?

कविता मैं क्या आज लिखूं
कि तेरे मन में उठे हिलोर ?

तस्वीर तुम्हारी है मन में
शब्दों में उसे सजाने दो,
उन शब्दों से गीत बनाकर
झूम के मुझको गाने दो ;

इन गीतों में वो प्रीत छुपी है
जो कर दे तुमको भाव-विहोर,
कविता मैं क्या आज लिखूं
कि तेरे मन में उठे हिलोर ?

मंडराए नभ में ये बादल
वन में नाचे कोई मोर,
इन्द्रधनुष के सात रंग में
छाए धरती चारों ओर ;

सावन के मतवाले बादल
गरज-गरज बरसे घनघोर,
कविता मैं क्या आज लिखूं
कि तेरे मन में उठे हिलोर ?

Sunday, October 19, 2008

विकलता

आज मेरा मन विकल है,

तोड़कर इन बंधनों को
काटकर इन बेडियों को
उड़ने को इस आसमान में
होता प्रतिपल चंचल है ,
आज मेरा मन विकल है ;

भूल के सारी यादों को
और पुराने वादों को
बसने को किसी पर्णकुटी में
बहता निर्झर जहाँ कल-कल है
आज मेरा मन विकल है ।

Tuesday, September 30, 2008

मन का ज्वार

स्मृतियों के झोंकों से
विकल आज है मेरा मन,
संभालो मेरे कश्ती को
पतवार टुट रहा है,
मन में ज्वार उठ रहा है।

यादों की घनघोर घटा से
संकट में मेरा जीवन,
बचा खेवैया मेरी नैया
मझधार डुब रहा है,
मन में ज्वार उठ रहा है।

Saturday, September 13, 2008

चंचलता

आज हवा के झोकों ने
मुझे जगाकर ये पूछा
किसके ख़्वाबों में डूबे हो
क्या है उसका नाम बता ?


मैंने कहा कि सुन ऐ हवा
ख्वाब से तुझको लेना क्या
तू ठहर जरा और बोल जरा
क्यूँ है तू इतना चंचल सा ?

ये पेड़ बुलाते हैं मुझको
ये नदी बुलाती है मुझको
ये बादल मुझे बुलाता है
ये वर्षा मुझे बुलाती है ;

सब लोग बुलाते हैं मुझको
इसलिए है मुझमें चंचलता
तू भी अपना ख्वाब छोड़ दे
अब और नहीं ठहर सकता


Tuesday, September 02, 2008

अभिशापित

जिसकी शीतल किरणों ने
इस जग को गुलजार किया ,
जिसकी अद्भुत सुन्दरता की
चर्चा जी-भर संसार किया;

पर देख दाग अपने तन पे
चाँद हमेशा कुंठित क्यूँ है ,
चंदा तू अभिशापित क्यूँ है?

सृष्टि को जो पथ दिखलाया
अन्धकार को दूर भगाया,
ठिठुर रही थी धरती ये
अपने ताप से उसे बचाया;

पर अपने ही तापमान से
रवि हमेशा पीड़ित क्यूँ है ,
सूरज तू अभिशापित क्यूँ है ?

जो युग-युग का प्रहरी है
और देश की
रक्षा की है,
भारत का मस्तक ये है
उदगम ये गंगा की है ;

पर अपने एकाकीपन से
गिरिराज हमेशा चिंतित क्यूँ है ,
गिरिवर तू अभिशापित क्यूँ है?

Thursday, July 24, 2008

बरसात की इस रात में

बरसात की इस रात में
कहना है तुमसे बात एक ,
सुन सको तो सुन लो तुम
कहता हूँ तुमसे बात एक

बरसात की ये बूँदें आज
बिखरी है देखो तिनकों पर,
चुन सको तो चुन लो तुम
जिसमें दिखे विश्वास एक

विश्वास है ये बूंद की
कि वह रहेगी बूँद ही,
जब तक सिखला दे हमें
प्रेम का नया पाठ एक

बरसात की इस रात में
कहना है तुमसे बात एक

Tuesday, July 22, 2008

सपना

कल रात को मेरे सपने में
मेरी आंखों के पलकों पर,
हलचल सी मची ;
मैंने देखा , मैंने पाया
पंख लगे हैं बाहों में और
मन चंचल है ;
उड़ने को किसी आसमान में
जहाँ हो कोई सीमाये ,
और हम उनमें पंख फैलायें
विहगों से बातें कर लें।

कल रात को मेरे सपने में
मैंने देखा , मैंने पाया
पंख कटे हैं बाहों से और
दलदल है ;
मैं पड़ा हुआ उस दलदल में
उड़ने की कुंठा को लेकर,
आसमान को ताक रहा
विहगों से मैं जल-भुनकर।

Thursday, July 17, 2008

दूरी

तेरा समीप मैं पा जाऊं
जीवन नया रचा पाऊं ,
ये स्वप्न हमारा-तुम्हारा पर
स्वप्न अभी तक कच्चे हैं ,
हम दूर ही अच्छे हैं;

दूर हमारी आंखों से पर
मन ये मेरा तेरा ही घर ,
मन की सुंदर बगिया में
तेरे नाम के गुच्छे हैं ,
हम दूर ही अच्छे हैं;

पास अगर आए तुम तो
दिल धड़क जाए ये मेरा ,
फिर टूट जाए दिल से जो
विश्वास हमारे सच्चे हैं ,
हम दूर ही अच्छे हैं ।।

Tuesday, July 15, 2008

कुछ छूट गया है

शायद कुछ छूट गया है;

दर्द दिया जो तूने मुझको
भूल गया मैं उन सबको पर,
दिल से उनका था अपनापन
वो अपनापन टूट गया है ,
शायद कुछ छूट गया है;

तेरे गम को भूल गया मैं
खंडहरों में महल बनाकर,
पर कंकर-पत्थर से पिटकर
भोला दिल टूट गया है ,
शायद कुछ छूट गया है;

लहू से लथपथ दिल था मेरा
घाव सुखाया उसे तपाकर,
यादों का उनसे था बंधन
अब बंधन टूट गया है ,
शायद कुछ छूट गया है .

Friday, March 07, 2008

प्राची के बादल









नया
सवेरा अभी हुआ पर
है प्राची में बादल छाया ,
धरती की सूनी किस्मत पर
आज विधाता फिर मुस्काया ;

अब बादल छाये ,छाने दो
मैं बिजली बन जाता हूँ ,
इन बादल से छिप-छिपकर
चिर-आलोक लुटाता हूँ ;

या करो मूझे शक्ति प्रदान
मैं प्राची में जाता हूँ ,
घनघोर तिमिर की मुट्ठी से
सूरज लूटकर लाता हूँ