Sunday, October 19, 2008

विकलता

आज मेरा मन विकल है,

तोड़कर इन बंधनों को
काटकर इन बेडियों को
उड़ने को इस आसमान में
होता प्रतिपल चंचल है ,
आज मेरा मन विकल है ;

भूल के सारी यादों को
और पुराने वादों को
बसने को किसी पर्णकुटी में
बहता निर्झर जहाँ कल-कल है
आज मेरा मन विकल है ।

No comments: