
हम जिस पर विचार करते हैं
और नही व्यवहार करते हैं ,
जिसपर सिर्फ़ हम सोचते हैं
जिसका सत्य नही खोजते हैं ,
जो कल्पना के दर्पण में
हमारा मन बहलाता है ,
वह आत्म-छवि कहलाता है ।
आत्म-छवि हमारा ही एक रूप है
हमारे स्वप्न का एक स्वरूप है ,
स्वप्न के बाहर भी एक संसार होता है
संसार भी हर छवि का एक बीज बोता है,
वह बीज भी वृक्ष बन जाता है
जो सामाजिक छवि कहलाता है
सामाजिक छवि का अपना ही मान है
जिसका हर किसी को सदा ध्यान है ।
कभी आत्म छवि तो उससे मेल खा जाते है
कभी आईने में उलटी तस्वीर नज़र आते है ,
और तब दोनो छवि आपस में टकराते है
समाज के साथ हम भी परेशान हो जाते हैं ,
इस टकराव का कभी परिणाम आता है
कभी यही एक 'अंतर्द्वंद' बन जाता है ।
ये अंतर्द्वंद एक स्थिति है
जिसमें विजय की आस नही ,
करते हम प्रयास नही
रहता मन में विश्वास नही ,
हार कर भी जीत का आभास होता है
कभी जीत कर भी मन बहुत रोता है ,
समाज से कह दो मेरी छवि छीन लें
अब मैं आत्म-छवि अपना रहा हूँ ,
अब अंतर्द्वंद करने की ताक़त नही
मैं तुमसे द्वंद करने आ रहा हूँ॥
-A conflict between Ego and Superego- related to Freud theory of psychology-