Friday, May 18, 2007

आत्म-छवि और अंतर्द्वंद










हम जिस पर विचार करते हैं
और नही व्यवहार करते हैं ,
जिसपर सिर्फ़ हम सोचते हैं
जिसका सत्य नही खोजते हैं ,
जो कल्पना के दर्पण में
हमारा मन बहलाता है ,
वह आत्म-छवि कहलाता है ।

आत्म-छवि हमारा ही एक रूप है
हमारे स्वप्न का एक स्वरूप है ,
स्वप्न के बाहर भी एक संसार होता है
संसार भी हर छवि का एक बीज बोता है,
वह बीज भी वृक्ष बन जाता है
जो सामाजिक छवि कहलाता है
सामाजिक छवि का अपना ही मान है
जिसका हर किसी को सदा ध्यान है ।

कभी आत्म छवि तो उससे मेल खा जाते है
कभी आईने में उलटी तस्वीर नज़र आते है ,
और तब दोनो छवि आपस में टकराते है
समाज के साथ हम भी परेशान हो जाते हैं ,
इस टकराव का कभी परिणाम आता है
कभी यही एक 'अंतर्द्वंद' बन जाता है ।

ये अंतर्द्वंद एक स्थिति है
जिसमें विजय की आस नही ,
करते हम प्रयास नही
रहता मन में विश्वास नही ,
हार कर भी जीत का आभास होता है
कभी जीत कर भी मन बहुत रोता है ,

समाज से कह दो मेरी छवि छीन लें
अब मैं
आत्म-छवि अपना रहा हूँ ,
अब अंतर्द्वंद करने की ताक़त नही
मैं तुमसे द्वंद करने रहा हूँ


-A conflict between Ego and Superego- related to Freud theory of psychology-





Tuesday, May 15, 2007

अंधकार










मूझे डर लगता है अंधकार से
किसी अपशकुन के विचार से,
शायद इसलिये देता हूँ प्रहार कर
हर जगह किसी अन्धकार पर ।

हम प्रहार उसी पर करते हैं
जिनसे हम किसी तरह डरते हैं ,
कोई हम पर प्रहार करता है
शायद हमसे वह डरता है ।

हम अन्धकार से डरते हैं
अन्धकार हमसे डरता होगा ,
हम अन्धकार से लड़ते हैं
अन्धकार हमसे लड़ता होगा ।

अन्धकार में जीने की आदत नही
उजाले की कोशिश में रहता निरंतर ,
तमसो माँ ज्योतिर्गमय जपता
आता रहा हूँ युग और युगान्तर ।

आओ अन्धकार मैं ललकारता हूँ
डरता हूँ मगर मैं मजबूर हूँ ,
कितना भी कमजोर कर दे मुझे
ताक़त से अब भी मैं भरपूर हूँ

- Possessed by some brutal Superego-who speak here-it seems so-That time I was in major depression and write these lines-