नही मैं सरगम संध्या की
ना ही निशा का साया हूँ ,
मैं एक सवेरा इस युग का
धरती की धुन्धिल काया पर
किरणे मधुर फैलाता हूँ ;
नहीं पिटारी जादू की
ना ही कोई माया हूँ ,
मैं एक सपेरा इस युग का
सर्पों का भी मन बहलाने
चंचल बीन बजाता हूँ ;
नहीं मैं कोई कल्पना कोरी
ना ही किसी का छाया हूँ ,
मैं एक चितेरा इस युग का
पकड़ तुलिका इन हाथों में
रंगों को बिखराता हूँ ;
नहीं फरिस्ता इस दुनिया का
ना ही कुछ कहने आया हूँ ,
मैं एक लुटेरा इस युग का
लूट तुम्हारे भावों को
कविता नया बनाता हूँ ।
Wednesday, September 26, 2007
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1 comment:
सुन्दर रचना है, बधाई.
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