Wednesday, October 03, 2007

नागमणि

हाय  रे  विधाता 
ये तुमने क्या किया
इतनी बहुमूल्य मणि
किसके सिर पर दे दिया
एक तो वह नाग है
दुष्टता की आग है ...
हर फन में उसके
जहर ही जहर है ,
क्रोध में उसके
कहर ही कहर है ;
उसके सिर पर नागमणि
हे विधाता
तु कैसा महादानी ?

सुनकर विधाता घबराये
फिर हौले से मुस्कुराये
वह कोई मणि नही
चमकता पत्थर मात्र है ,
वो तुच्छ नाग ही
जिस तुच्छता का पात्र है ,
वह बहुमूल्य इसलिये है
की उस दुष्ट के पास है ,
दुर्लभ जिसकी आस है ;

मैंने
फिर नागमणि की ओर देखा

देखकर ललचाया
फिर सोच मन बहलाया
ये तो बहुमूल्य नाहीं है
शायद !! विधाता ही सही है ...

2 comments:

आलोक said...

अालोिकत सन्सार

कृपया इसे बदल के आलोकित संसार कर लें।
दरअसल अ + ा
और आ में फ़र्क है।
होना नहीं चाहिए, पर है।
उसी तरह, िक कै बजाय कि लिखें, यानी जिस क्रम में बोलते हैं उसी क्रम में लिखें।

सन्सार के बदले संसार - तो खैर वर्तनी की ही समस्या है।

आप चाहें तो बदलाव करने के बाद यह टिप्पणी मिटा सकते हैं।

Anita kumar said...

Alok ji bahut khoob likha hai aur badhe uttam vichaar...waise jis kavita ki baat aap mere blog per dekh ker ker rahe hain woh meine wahaan sunaai thi, prabhandhak hone ke naate shaayad aap bahut vyast the is liye sun nahi paaye aap jab chaahe hum haazir honge waise ab toh bersaat khatam..yaad hai na kavit sandhya ab kahaan hogi