तुम नदी की चंचल धारा हो
मैं उसी नदी का एक किनारा ,
तुम तेज गति से चलती हो
और शांत सा स्वभाव हमारा ;
सागर-मिलन को उत्सुक तुम
मैं इंतजार करता बेचारा ,
दिल को छूकर कह देती हो
साथ ना होगा कभी हमारा ;
तुम तो कोई राह नयी हो
मैं थका हुआ एक राही हारा,
एक बार कभी रुक जाओ
थाम सकुं मैं हाथ तुम्हारा ।
Tuesday, November 06, 2007
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4 comments:
क्षमा चाहूँगा आलोक जी आपकी कविता अच्छी लगी तो प्रिंट करके अपने मित्रो को भी पढने को दे दी आपकी बिना अनुमति के.
aho bhaagya :))
achhi hai. I like it.
Aaj ddhoondhte ddhondhte aapki kavitaaon se parichay hua... Bahut badiya lagee...Baar baar pad kar anand aa raha hai...Doston ko jarroor bataaonga inke baare main
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