यात्रा के पूर्व यात्री अंत क्यों तू सोचता है....
चल सको तो चलो तुम इन रास्तों पर अनवरत
इन रास्तों पर बैठ पदचिन्ह किसकी खोजता है।
यात्रा के पूर्व ....
इस नदी की लहर को देखो, इतराती, बलखाती है
दुर्गम जंगल, चट्टानों में कैसे यह राह बनाती है;
क्या इसे परवाह है किससे मिलन इनका होगा
इसीलिए लहरें ये पल-पल, उछाल भरती जाती है।
यात्री तुम इस सफर का भरपूर आनंद लो
क्या पता आज है जो, वो कल हो ना हो ;
ये फूल, पत्ते, घास, वृक्ष सभी मुरझाते हैं
बसंत जल्दी कभी वापस नहीं आते हैं।
सत्य है ये रास्ते और मंजिल मायाजाल है
इन मंजिलों ने लूटा जीवन का पूरा साल है;
मंजिलों को छोड़, इन रास्तों की पूजा कर
ये रास्ते ही धर्म है, यह रास्ता ही देवता है।
यात्रा के पूर्व यात्री अंत क्यों तू सोचता है....