Tuesday, January 30, 2007
तकरार
इनकी परिभाषा को देखो
देखो इनकी निज-भाषा को
अभिलाषा की चाह में देखो
एक नज़रिया अपनाता है
एक नज़रिया फ़िर पाता है
और नज़रिया टकराता है
टकराता है, टकराता है.
nazzariyon ki takraar...a great scene played by ranjan n tarun mathur in...ek aur nazzariya...3rd in chaos 07
Friday, January 19, 2007
मजदूर
जिसकी कला को संसार सराहे
वो फन का माहिर मजदूर है,
जिसके जौहर की मची है धूम
वो कामगार मजदूर है,
माटी से जो फसल उगा दे
वो अन्नदेव मजदूर है,
एक पत्थर को जो ताज बना दे
वो शिल्पकार मजदूर है,
एक पत्थर को जो ताज बना दे
वो मजदूर बड़ा मजबूर है,
एक पत्थर को जो ताज बना दे
एक रोटी से वो दूर है
एक पत्थर से जो ताज बन जाए
बनता मालिकों का गुरूर है,
एक पत्थर को जो ताज बना दे
एक रोटी से वो दूर है.
iitb presents in chaos 07 ...this is my part...interesting....but sorry we miss the street-play compt due to bad-luck in travelling.
Tuesday, January 09, 2007
शिखर
मैंने शिखरों की ओर देखा
और देखता रहा
निहारता रहा
कुछ सोचता रहा
विचारता रहा,
कितना भव्य है ये
क्या किस्मत पायी है
कितनी ऊंचाई है,
पर तभी देखा
उनपर छाए हिम-पिंडों को
दूर भागते विहग-झूंडों को
मुझे फ़िर सोचना पड़ा
विचारना पड़ा
शिखर ओ शिखर
पुकारना पड़ा,
तुम कैसे रहते हो
कैसे इतना सहते हो,
जल भी जहाँ कठोर हो जाते है
पौधे जहाँ सदा सो जाते है,
अकेलापन तुझे तो खटकता होगा
तेरा मन नहीं भटकता होगा?
और देखता रहा
निहारता रहा
कुछ सोचता रहा
विचारता रहा,
कितना भव्य है ये
क्या किस्मत पायी है
कितनी ऊंचाई है,
पर तभी देखा
उनपर छाए हिम-पिंडों को
दूर भागते विहग-झूंडों को
मुझे फ़िर सोचना पड़ा
विचारना पड़ा
शिखर ओ शिखर
पुकारना पड़ा,
तुम कैसे रहते हो
कैसे इतना सहते हो,
जल भी जहाँ कठोर हो जाते है
पौधे जहाँ सदा सो जाते है,
अकेलापन तुझे तो खटकता होगा
तेरा मन नहीं भटकता होगा?
Monday, January 08, 2007
अकेलापन
अकेलापन
किसी निर्जन वन
में अकेले रहने से नहीं आता है,
वो आता है
जब आसपास के लोगों की
भाषा समझ में नहीं आती,
उनके रचे हुए जीवन की
परिभाषा समझ में नहीं आती;
आज मैं अकेला हूँ
आसपास हैं लोग अनेक
सबके चेहरे देखते हुए
भी पहचान नहीं पाता हूँ,
बिना कोई आवाज़ दिए
अपने बढे कदम वापस लाता हूँ,
डर रहता है आवाज़ खोने का
डर रहता है गुमनाम होने का
दुनिया की भीड़ में
उलझे हुए चीड में
सवाल भी उलझ रहे हैं
अकेलापन ये है क्या?
किसी निर्जन वन
में अकेले रहने से नहीं आता है,
वो आता है
जब आसपास के लोगों की
भाषा समझ में नहीं आती,
उनके रचे हुए जीवन की
परिभाषा समझ में नहीं आती;
आज मैं अकेला हूँ
आसपास हैं लोग अनेक
सबके चेहरे देखते हुए
भी पहचान नहीं पाता हूँ,
बिना कोई आवाज़ दिए
अपने बढे कदम वापस लाता हूँ,
डर रहता है आवाज़ खोने का
डर रहता है गुमनाम होने का
दुनिया की भीड़ में
उलझे हुए चीड में
सवाल भी उलझ रहे हैं
अकेलापन ये है क्या?
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