मैंने शिखरों की ओर देखा
और देखता रहा
निहारता रहा
कुछ सोचता रहा
विचारता रहा,
कितना भव्य है ये
क्या किस्मत पायी है
कितनी ऊंचाई है,
पर तभी देखा
उनपर छाए हिम-पिंडों को
दूर भागते विहग-झूंडों को
मुझे फ़िर सोचना पड़ा
विचारना पड़ा
शिखर ओ शिखर
पुकारना पड़ा,
तुम कैसे रहते हो
कैसे इतना सहते हो,
जल भी जहाँ कठोर हो जाते है
पौधे जहाँ सदा सो जाते है,
अकेलापन तुझे तो खटकता होगा
तेरा मन नहीं भटकता होगा?
Tuesday, January 09, 2007
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