Tuesday, February 24, 2009

सच या सपना





सच में रहूँ या सपनों में
ये बात समझ नही पाता हूँ ;

सच भी मुझे बुलाता है
सपने भी मुझे बुलाते हैं,
सच भी मुझे रुलाता है
सपने भी मुझे रुलाते हैं;
सपनों में उलझ सा जाता हूँ
सच से भी धोखा खाता हूँ,
सच में रहूँ या सपनों में
ये बात समझ नही पाता हूँ ।

ये सपने तो क्षणभंगुर हैं
सच यही मुझे सुनाता है,
ये सच पर नीरस सा है
सपना यही मुझे दिखाता है;
सच की सुनूँ या सपने देखूं
इस द्वंद में मैं रह जाता हूँ,
सच में रहूँ या सपनों में
ये बात समझ नही पाता हूँ ।

1 comment:

Vikash said...

बहुत खूब. अच्छा लिखा है. एक बार रिवाइज़ कर के छंदों को सही कर लो, कविता के भाव उत्कृष्ट हैं.