Monday, August 31, 2009
अतीत में झांकता हूँ
प्रभात की डेहरी पर बैठा
रात्रि की ओर ताकता हूँ ।
एक लगाव जो मुझे हुआ था
उस अजब-अनोखी रात से,
जिस रात का कितना पहर था
मुझे आज भी मालूम नहीं है ;
आज भी मुझे याद नही
वह रात थी कितनी अँधेरी,
कितना विषम
कितना त्रासद
कोई पाप था या शाप था
पर मन मेरा है काँपता
सोचकर उस रात को
जिसमें छुपा मेरा दर्द है
और सिमटा शब्द है ।
प्रभात की डेहरी पर बैठा
रात्रि की ओर ताकता हूँ ।
ताकत नहीं मुझमें बचा
चलूँ दिवस की ओर जरा,
चाहत नहीं मुझमें बचा
लूटूं किरणों का भी मजा ;
चाह मेरी लुट गई
उम्मीद मगर शेष है
कि दिवा की किरणें कभी
मुझको ललचाएगी
मुझको बहकाएगी
कभी हौसला बढाएगी
नए पाठ पढ़ाएगी ।
पर फिलहाल इससे बेखबर
अतीत में झांकता हूँ ,
प्रभात की डेहरी पर बैठा
रात्रि की ओर ताकता हूँ ।।
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