Sunday, February 26, 2006

मैं चाँद फिर से चमकूंगा

काली रात अमावस आज की
बरस रही तिमिर घनघोर,
चमक चाँद की लुप्त हुई
कलप रही ये नयन चकोर।

आज निशाचर जब तुम जागे
त्राहि-त्राहि बोली ये जगती,
अरे निशाकर तुम कब भागे
आलोकित कर दो ये धरती.

भागा निशाकर मैं कब पर
विद्यमान था उसी जगह पर,
देख दशा ऐसी जगती की
सोच रहा था पलकें भर-भर.

किस पाप का अभिशाप ये
अस्तित्व अपना खो रहा हूँ,
आज जरूरत जगती को जब
निश्चिंत हो क्यों सो रहा हूँ.

मैं चाँद पर करता ही क्या
चमक नही ख़ुद थे चेहरे पर,
घोर तिमिर से टकराता क्यों
जब मेरे तन गए तिमिर भर.

पर दुनिया दुविधा को मेरी
समझ नही थी पा रही,
व्यथित तिमिर से हो मुझे
कटु-वचन दिए जा रही.

मैं चाँद चिंतित मन लेकर
सुन रहे थे कटु-वचन ये,
गहन सोच में दुबकी लेकर
कर रहे मंथन-मनन ये.

अपनी खोयी चमक मैं पाकर
आसमान में फ़िर चमकूंगा,
जगती की व्याकुल ह्रदय में
स्नेह-रस मैं फ़िर भर दूँगा.

अपनी चमक की छटा से
चकोर मन कोई तरसाऊंगा ,
पूर्णमासी की रात वो होगी
अलोक जगत में बरसाऊंगा ।

Saturday, February 11, 2006

ढलता सूरज

मैं एक ढलता सूरज ही
पर कोई तो दिया दिखाओ!

बाल रवि बन जब आया था
नव सृष्टि में भरा उल्लास,
लाल छवि बन जब छाया था
हर दृष्टि में भरा विश्वास;

मैं एक उगता सूरज भी था
सब करते थे मेरा अभिनन्दन,
चारों दिशा में चहल-पहल थी
सब करते थे मेरा स्तुति-वंदन;

जलने लगा मैं अनल-पुंज बन
करने सकल विश्व आलोकित,
इस जगती की सेवा कर-कर
होने लगा ह्रदय मेरा पुलकित;

फ़िर दग्ध हुआ पुलकित ह्रदय
मेरा ताप, मेरा अभिशाप बना,
था जप रहा जो मंत्र मैं
किसी काल-मंत्र का जाप बना;

फ़िर धरा तपी, ये गगन तपा
और तपा ये जगत चराचर,
दग्ध ह्रदय मेरा टूट-टूट कर
लावा बन-बन बिखरा भू पर;

जगती जलकर भस्म हुई
मैं भी जलकर सूख गया,
ज्वाला अंदर की खत्म हुई
मैं अन्दर से टूट गया;

लज्जित मन में पश्चाताप भर
अस्ताचल में ढल रहा हूँ,
अतीत के पल को याद कर-कर
मदिर-मदिर मैं जल रहा हूँ;

एक चाँद चमकने दो कोई
जो जला हुआ उसे न जलाओ,
मैं एक ढलता सूरज ही
पर कोई तो दिया दिखाओ!!

Monday, February 06, 2006

प्रेम और बलिदान

पतंगा-चकोर-चातक सीरीज़ की पहली कविता....

मगन था उड़ने में वो पतंगा
मेरे घर के प्रांगण में,
थी जल रही वो अनल-ज्योति भी
उस घर के ही आँगन में;

अति-आकर्षण अग्नि-शिखा की
चुम्बकित किया उसे इस ओर ,
प्रेम की रोशन-रंगों में
होता गया वो सराबोर;

प्रेम की चंद झलक ही पाकर
ठाना उसने संग चलने का,
बारम्बार प्रयास मिलन के
गम न तनिक उसे जलने का;

मंत्रमुग्ध मैं था उसपर
उसने दिए मुझे ये विचार,
पलभर ही कोई करे प्यार
कर दूँ उसपर प्राण निसार.

पूर्णमासी थी वो शरद की
चाँद भी था अपने यौवन पर,
चलता-फिरता वो चकोर भी
बैठ गया किसी शिलाखंड पर;

मुस्कान जो देखी चाँद की उसने
तीव्र हुई उस दिल की धड़कन,
शशि की स्निग्ध किरण पाकर
व्याकुल मन ने की क्रंदन;

प्रेम की चंद दरश ही पाकर
प्रण किया उसने मिलने का,
किया इंतजार उस सर्द रात में
ग्लानि नही तनिक गलने का;

मंत्रमुग्ध मैं था उसपर
उसने दिए मुझे ये विचार,
पलभर ही कोई करे प्यार
कर दूँ उसपे प्राण निसार.

अपने उपवन की तरु डाली पर
चातक एक मैंने देखा था,
कैसे अपनी वो त्रास मिटाए
सोच मगन में लेटा था.

देखा ऊपर श्यामल मेघों को
था उन्मादित उसको तरसाकर,
जिसने थी उसकी प्यास बढ़ा दी
बूंदे दो जल की बरसाकर.

प्रेम की दो घूंटे ही पाकर
सोचा उसने ये मन भरने का,
पल-पल की प्रतीक्षा उसने
गम न तड़प-तड़प मरने का.

मंत्रमुग्ध मैं था उसपर
उसने दिए मुझे ये विचार,
पलभर ही कोई करे प्यार
कर दूँ उसपे प्राण निसार.

है प्रेम आज बदनाम धारा पर
प्रेम का कोई मूल्य नही है,
है प्रेम आज बदनाम सरासर
पर प्रेम सा कोई तुल्य नही है;

उस पतंग,चकोर,चातक ने
जो अपना आत्मबलिदान दिया,
प्रेम के व्यापक अर्थों का
मुझको सच्चा ज्ञान दिया;

वो राष्ट्र, राष्ट्र नही जब
जिनमें आत्मसम्मान न हो,
वो प्रेम भी प्रेम नही तब
त्याग-आत्मबलिदान न हो;

आभार व्यक्त करता मैं उनके
जिसने दिए मुझे ये विचार;
पलभर ही कोई करे प्यार
कर दूँ उसपर प्राण निसार।

प्रेम और भ्रम

पतंगा-चकोर-चातक सीरीज़ की दूसरी कविता ....एक नए अंदाज में....

अग्नि-शिखा की दीप्त किरण ने
प्रेम की छोड़ी थी पिचकारी,
अपने में था मगन पतंगा
देख के मारा था किलकारी;

देख अनल के उस रूप को
इस कदर हुआ लालायित,
समझ नही पाया था मैं
क्यों प्रस्तुत हुआ नाश हित;

झुलस गया अग्नि-लपटों में
बचने का नही मौका था,
बतलाया पर जलते-जलते
प्रेम नही वह धोखा था.

चाँद कयामत सा बनकर
चमक रहा नील-गगन में,
शांत सा बैठा चकोर भी
गूंज किया अपने क्रंदन में;

देख चाँद की उस आभा को
इस कदर हुआ आकर्षित,
समझ नही पाया था मैं
क्यों जीवन किया उत्सर्जित;

जम गया ओस की बूंदों में
बचने का नही मौका था,
बतलाया पर गलते-गलते
प्रेम नही वह धोखा था;

मेघ काली घटा को लेकर
नभमंडल में छाया था,
प्यास से व्याकुल चातक के
मन की उम्मीद जगाया था।

देख मेघ के उन्मादों को
इस कदर वह लिया आस,
समझ नही पाया था मैं
क्यों बना वह काल का ग्रास.

मरा त्रासित तड़प-तड़प के
बचने का नही मौका था,
बतलाया पर मरते-मरते
प्रेम नही वह धोखा था.

प्रेम-गली की प्रेम-डगर पर
प्रेम-दीवाने जो चलते हैं,
प्रेम-अगन की प्रेम-कुंड में
समिधा के सम वो जलते हैं;

प्रेम-युग के प्रेम-दीवानों
प्रेम का इतिहास जानो,
प्रेम-द्युत के प्रेम-कीडा में
कितनो का सर्वनाश मानो;

भस्म हुए सब प्रेम-चिता पर
बचने का नही मौका था,
बतलाये सब चलते-चलते
प्रेम नही वह धोखा था.