पतंगा-चकोर-चातक सीरीज़ की दूसरी कविता ....एक नए अंदाज में....
अग्नि-शिखा की दीप्त किरण ने
प्रेम की छोड़ी थी पिचकारी,
अपने में था मगन पतंगा
देख के मारा था किलकारी;
देख अनल के उस रूप को
इस कदर हुआ लालायित,
समझ नही पाया था मैं
क्यों प्रस्तुत हुआ नाश हित;
झुलस गया अग्नि-लपटों में
बचने का नही मौका था,
बतलाया पर जलते-जलते
प्रेम नही वह धोखा था.
चाँद कयामत सा बनकर
चमक रहा नील-गगन में,
शांत सा बैठा चकोर भी
गूंज किया अपने क्रंदन में;
देख चाँद की उस आभा को
इस कदर हुआ आकर्षित,
समझ नही पाया था मैं
क्यों जीवन किया उत्सर्जित;
जम गया ओस की बूंदों में
बचने का नही मौका था,
बतलाया पर गलते-गलते
प्रेम नही वह धोखा था;
मेघ काली घटा को लेकर
नभमंडल में छाया था,
प्यास से व्याकुल चातक के
मन की उम्मीद जगाया था।
देख मेघ के उन्मादों को
इस कदर वह लिया आस,
समझ नही पाया था मैं
क्यों बना वह काल का ग्रास.
मरा त्रासित तड़प-तड़प के
बचने का नही मौका था,
बतलाया पर मरते-मरते
प्रेम नही वह धोखा था.
प्रेम-गली की प्रेम-डगर पर
प्रेम-दीवाने जो चलते हैं,
प्रेम-अगन की प्रेम-कुंड में
समिधा के सम वो जलते हैं;
प्रेम-युग के प्रेम-दीवानों
प्रेम का इतिहास जानो,
प्रेम-द्युत के प्रेम-कीडा में
कितनो का सर्वनाश मानो;
भस्म हुए सब प्रेम-चिता पर
बचने का नही मौका था,
बतलाये सब चलते-चलते
प्रेम नही वह धोखा था.
Monday, February 06, 2006
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2 comments:
ye meri fav poem thi...koi yo comment karo :((((
are koi to comment karo ispar...anonymous hi sahi. bahut realistic poem hai yaar :))
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