पतंगा-चकोर-चातक सीरीज़ की पहली कविता....
मगन था उड़ने में वो पतंगा
मेरे घर के प्रांगण में,
थी जल रही वो अनल-ज्योति भी
उस घर के ही आँगन में;
अति-आकर्षण अग्नि-शिखा की
चुम्बकित किया उसे इस ओर ,
प्रेम की रोशन-रंगों में
होता गया वो सराबोर;
प्रेम की चंद झलक ही पाकर
ठाना उसने संग चलने का,
बारम्बार प्रयास मिलन के
गम न तनिक उसे जलने का;
मंत्रमुग्ध मैं था उसपर
उसने दिए मुझे ये विचार,
पलभर ही कोई करे प्यार
कर दूँ उसपर प्राण निसार.
पूर्णमासी थी वो शरद की
चाँद भी था अपने यौवन पर,
चलता-फिरता वो चकोर भी
बैठ गया किसी शिलाखंड पर;
मुस्कान जो देखी चाँद की उसने
तीव्र हुई उस दिल की धड़कन,
शशि की स्निग्ध किरण पाकर
व्याकुल मन ने की क्रंदन;
प्रेम की चंद दरश ही पाकर
प्रण किया उसने मिलने का,
किया इंतजार उस सर्द रात में
ग्लानि नही तनिक गलने का;
मंत्रमुग्ध मैं था उसपर
उसने दिए मुझे ये विचार,
पलभर ही कोई करे प्यार
कर दूँ उसपे प्राण निसार.
अपने उपवन की तरु डाली पर
चातक एक मैंने देखा था,
कैसे अपनी वो त्रास मिटाए
सोच मगन में लेटा था.
देखा ऊपर श्यामल मेघों को
था उन्मादित उसको तरसाकर,
जिसने थी उसकी प्यास बढ़ा दी
बूंदे दो जल की बरसाकर.
प्रेम की दो घूंटे ही पाकर
सोचा उसने ये मन भरने का,
पल-पल की प्रतीक्षा उसने
गम न तड़प-तड़प मरने का.
मंत्रमुग्ध मैं था उसपर
उसने दिए मुझे ये विचार,
पलभर ही कोई करे प्यार
कर दूँ उसपे प्राण निसार.
है प्रेम आज बदनाम धारा पर
प्रेम का कोई मूल्य नही है,
है प्रेम आज बदनाम सरासर
पर प्रेम सा कोई तुल्य नही है;
उस पतंग,चकोर,चातक ने
जो अपना आत्मबलिदान दिया,
प्रेम के व्यापक अर्थों का
मुझको सच्चा ज्ञान दिया;
वो राष्ट्र, राष्ट्र नही जब
जिनमें आत्मसम्मान न हो,
वो प्रेम भी प्रेम नही तब
त्याग-आत्मबलिदान न हो;
आभार व्यक्त करता मैं उनके
जिसने दिए मुझे ये विचार;
पलभर ही कोई करे प्यार
कर दूँ उसपर प्राण निसार।
Monday, February 06, 2006
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