Monday, September 21, 2009

नियंत्रणहीन

क्या मैं केवल दो यंत्रों का पुंज-मात्र हूँ ?
दो परस्पर विपरीत यंत्र...

जो अपने ही आप चलता है,
एक तुम्हें याद करता है,
एक तुम्हें भूल जाता है

आज भी याद आते हैं
वो पीपल, वो बरगद;
धान के खेत लहलहाते हुए,
गौरैयों के झूंड को गाते हुए,
और वहीं पास बहती नदी में
लहरों को जलतरंग बजाते हुए।
प्रकृति की इस अनोखी
अनुपम संगीत को,
सुननेवाला कौन था?
तुम थी और मैं था ।
वो समय कहाँ खो गया
क्या से क्या हो गया ;
अतीत को सह-सहकर
मैं कितना दीन हो गया हूँ,
शायद नियंत्रणहीन हो गया हूँ।
अब मैं केवल दो यंत्रों का पुंज-मात्र हूँ,
दो परस्पर विपरीत यंत्र...
जो बिना मेरी अनुमति के चलता है;
एक तुम्हें याद करता है,
एक तुम्हें भूल जाता है ।।

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