रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
'दिनकर' भी कितना आदमी अजीब था;
कर्ण और ऊर्वशी पर तो ग्रंथ लिख दिया,
मेरे लिए उसे कोई शब्द नहीं मिला ???
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ ,
मैं चुका हूँ देख 'रश्मिरथी' जनमते-मरते;
और लाखों बार धर्मराज को भी
'कुरुक्षेत्र' में पितामह से बातें करते।
'परशुराम की प्रतीक्षा' के काल गुजरे
तो 'शक्ति और क्षमा' मैंने राम का देखा;
दुर्योधन चला जब हरि को बाँधने
तो विकराल रूप घनश्याम का देखा ।
मैं न केवल 'युद्ध और शांति' ही देखा था,
'इतिहास के आंसू' भी बहते हुए देखा था;
'ऊर्वशी' को मैंने प्यार करते हुए देखा था
स्वयं युगधर्म को 'हुँकार' भरते हुए देखा था।
इतना कहकर चाँद उदास हो गया,
कुछ पल चुप रहा और फ़िर कहा:
'संस्कृति के चार अध्याय' समाप्त हो गए
ये पेड़-पौधे सारे अब लोहे के हो गए ;
इसे हरा कर दे कोई गीत अब कहाँ है,
हिन्दी-साहित्य का वो अतीत अब कहाँ है ?
** दिनकर के जन्मदिन पर समर्पित**
Wednesday, September 23, 2009
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