तुम सब मुझको समझे पत्थर
खुद मैं ही जब खाता ठोकर,
शायद मैं एक मोम भी था
देखा नही किसी ने छूकर ।
छुआ नही अब मत ही छूना
समझ मुझे एक पत्थर ही हूँ,
समझो मत मूझे मधु का प्याला
किसी काल का खप्पर ही हूँ ।
इस पत्थर को छू-छू कर
समय व्यर्थ न नष्ट करो,
खप्पर में मदिरा भर-भर
मदिरालय मत भ्रष्ट करो ।
गर पूजोगे इस पत्थर को
कभी मिले भगवान तुझे,
पर पढोगे इस पत्थर को
तभी मिले कुछ ज्ञान तुझे।
क्योकि पत्थर पर लिखा है
किसी बीती अतीत का वर्णन,
इस पत्थर में ही छुपा है
हर किसी का कष्ट निवारण।
पत्थर ही हूँ मैं तो क्या
बन चक्की ये जग पालूँगा,
खप्पर ही हूँ मैं तो क्या
सबके ऊपर छत डालूँगा।।
Saturday, January 28, 2006
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1 comment:
dono jagah patthar alag-alag ishaara kar rahe hain.kavita mein to ye chalta hi rahta hai...
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