तुम्हे तलाशा तरु-तरु में
कली-कली में,बाग़-बाग़ में,
नदी-नदी के लहर-लहर में
लहर-लहर के झाग-झाग में;
तुम्हे पुकारा डगर-डगर पर
गली-गली में,गाँव-गाँव में,
नगर-नगर के महल-महल में
महल-महल के छाँव -छाँव में;
तुम्हे सोचा चित्र-चित्र में
परियों के भी मित्र-मित्र में,
कथा-कथा के पात्र विचित्र में
सावित्री-सीता के चरित्र में;
तुम्हें पाया अपने चिंतन में
अपने मन में अपने चेतन में,
अपने ह्रदय के कम्पन में
अपनी नाडी के स्पंदन में।
Tuesday, January 31, 2006
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