चित्रों की ये विचित्र दुनिया मुझे बचपन से ही बहुत भाती थी. मेरी माँ कहती थी की जब मैं नन्हा था तो आँगन में लेटे-लेटे ही नन्ही उँगलियों से आसमान में अजीब-अजीब चित्र उकेरा करता था. धीरे-धीरे मेरी ललक तीव्र होती गई.....और एक दिन मैंने तुलिका उठा ही ली. फिर किसी जंगली जानवर की कल्पना करने लगा.
चित्र पूरा करने के बाद मैं बहुत खुश हुआ...और वो चित्र मैंने अपने एक अंकल को दिखायी और पूछा... अंकल,अंकल आपको डर लग रहा है. उन्होंने पहले तो चित्र को फिर मुझे विचित्र नजरों से घूरा और कहा.... भला मैं क्यों डरूं इस फल के चित्र से. मैं उदास हो गया था क्योंकि मैं तो इसे बाघ समझ रहा था. जिसे बड़े लोग समझ नही पा रहे थे. मेरे अंदर का नन्हा चित्रकार उभरने से पहले ही कुंद हो गया था. मैंने इसके बाद कभी तुलिका नही पकड़ी . दुनिया के रंग पन्नो पर दिखा न सके तो क्या;
हम तो अपनी कलम से भावनाओं को रंगते हैं।
Sunday, January 29, 2006
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