बारिश की कुछ बूँदें
जब धरती पर आई थी,
तीन तरह से धरती पर
स्वागत उसने पायी थी,
पहली बूँद चली इठलाती
अपनी किस्मत पर बलखाती
गिरी लौह की तप्त धार पर
राख बनी अस्तित्व मिटाती,
दूजी बूँद जरा संभलकर
गिरी पुष्प की पंखुरियों पर,
दिखने में मोती सी लगी
अगले पल मिटटी में मिली...
भाग्य प्रबल था तीजी का
एक सीप उसके लिए खुला था,
सत्य-प्रेम के सीप के अंदर
मोटी बन गई आगे चलकर।
Friday, December 29, 2006
तुम और चिंतन
मन में उभर रही हो
तन पे संवर रही हो
पता नहीं क्यूँ तुम ही
चिंतन में ठहर रही हो,
अब तन सुलग रहा है
अब मन सुलग रहा है
साथ तेरा पाकर मेरा
जीवन सुलग रहा है,
किस वक्त का इंतजार है
किस बात की तकरार है
जो दिल है तेरा कह रहा
क्यूँ तुझे इनकार है...
ह्म्म्म्म्म...
तन पे संवर रही हो
पता नहीं क्यूँ तुम ही
चिंतन में ठहर रही हो,
अब तन सुलग रहा है
अब मन सुलग रहा है
साथ तेरा पाकर मेरा
जीवन सुलग रहा है,
किस वक्त का इंतजार है
किस बात की तकरार है
जो दिल है तेरा कह रहा
क्यूँ तुझे इनकार है...
ह्म्म्म्म्म...
Saturday, December 23, 2006
कुछ लिख रहा हूँ
ये अँधेरी रात है पर
अनगिनत है दिये यहाँ
इन दीयों की दीप्ती में
जगमगाता दिख रहा हूँ,
आज मैं कुछ लिख रहा हूँ;
जगमगा लो द्वार-घर तुम
और जगत संसार अब तुम
एक लपट दिखाने इस जग को
जलता हुआ मिट रहा हूँ,
आज मैं कुछ लिख रहा हूँ;
अनगिनत इस पथ गए पर
वो निशानें अब कहाँ
उन निशानों को ढूंढता
पत्थरों से पिट रहा हूँ,
आज मैं कुछ लिख रहा हूँ.
अनगिनत है दिये यहाँ
इन दीयों की दीप्ती में
जगमगाता दिख रहा हूँ,
आज मैं कुछ लिख रहा हूँ;
जगमगा लो द्वार-घर तुम
और जगत संसार अब तुम
एक लपट दिखाने इस जग को
जलता हुआ मिट रहा हूँ,
आज मैं कुछ लिख रहा हूँ;
अनगिनत इस पथ गए पर
वो निशानें अब कहाँ
उन निशानों को ढूंढता
पत्थरों से पिट रहा हूँ,
आज मैं कुछ लिख रहा हूँ.
Thursday, December 21, 2006
मैं भूल चुका हूँ
बीती बातें मत
याद दिलाना
मैं भूल चुका हूँ,
जख्मो पर मत
नमक लगाना
मैं भूल चुका हूँ,
कितने फांसी के
तख्तों पर
मैं झूल चुका हूँ,
पर गलती मत
याद दिलाना
मैं भूल चुका हूँ।
याद दिलाना
मैं भूल चुका हूँ,
जख्मो पर मत
नमक लगाना
मैं भूल चुका हूँ,
कितने फांसी के
तख्तों पर
मैं झूल चुका हूँ,
पर गलती मत
याद दिलाना
मैं भूल चुका हूँ।
Wednesday, December 20, 2006
पतझड़ का एक पेड़
देखा मैंने पतझड़
पतझड़ का एक पेड़,
उस पर न ही पत्ते थे
न ही मधु के छत्ते थे,
मगर वह खड़ा था
अकड़ कर अडा था,
मैं देखता रहा
देख सोचता रहा
कि पेड़ क्यूँ खड़ा है,
अकड़ क्यूँ अडा है...
समयचक्र चलते रहे
पर हम आखें मलते रहे,
पेड़ पर पत्ते नहीं आए
पंछी नहीं चाह्चहाये,
मगर पेड़ खड़ा था,
अजीब नज़ारा था...
वक्त ने बदली करवटें
मधुमास धरा पर छा गया,
मैंने देखा पेड़ पर
पंखुडियां कहीं से आ गया,
पेड़ तब भी खड़ा था
पर कुछ हरा-भरा था,
धीरे-धीरे पत्ते आने लगे
पंछी चहचहाने लगे,
छाया धरती पर छाने लगे
मोर-पपीहे नाचने-गाने लगे,
मगर पेड़ खड़ा था
अजीब नज़ारा था...
मैंने देखा
पेड़ का धैर्य
उसकी सहनशक्ति,
उसका साहस
उसकी हिम्मत
अंत में किस्मत;
मैं समझ गया
पेड़ क्यूँ खड़ा था
अकड़ क्यूँ अडा था.....
पतझड़ का एक पेड़,
उस पर न ही पत्ते थे
न ही मधु के छत्ते थे,
मगर वह खड़ा था
अकड़ कर अडा था,
मैं देखता रहा
देख सोचता रहा
कि पेड़ क्यूँ खड़ा है,
अकड़ क्यूँ अडा है...
समयचक्र चलते रहे
पर हम आखें मलते रहे,
पेड़ पर पत्ते नहीं आए
पंछी नहीं चाह्चहाये,
मगर पेड़ खड़ा था,
अजीब नज़ारा था...
वक्त ने बदली करवटें
मधुमास धरा पर छा गया,
मैंने देखा पेड़ पर
पंखुडियां कहीं से आ गया,
पेड़ तब भी खड़ा था
पर कुछ हरा-भरा था,
धीरे-धीरे पत्ते आने लगे
पंछी चहचहाने लगे,
छाया धरती पर छाने लगे
मोर-पपीहे नाचने-गाने लगे,
मगर पेड़ खड़ा था
अजीब नज़ारा था...
मैंने देखा
पेड़ का धैर्य
उसकी सहनशक्ति,
उसका साहस
उसकी हिम्मत
अंत में किस्मत;
मैं समझ गया
पेड़ क्यूँ खड़ा था
अकड़ क्यूँ अडा था.....
Friday, December 15, 2006
पूजा
जो सुबह पिलाती हो हाला
जो शाम भरे मेरा प्याला,
उस सुबह की पूजा करता हूँ
उस शाम की पूजा करता हूँ,
मैं जाम की पूजा करता हूँ;
जो सबको देती है हाला
जो सबका भरे सदा प्याला,
उस साकी का हो कोई भी नाम
उस नाम की पूजा करता हूँ,
मैं जाम की पूजा करता हूँ.
जो शाम भरे मेरा प्याला,
उस सुबह की पूजा करता हूँ
उस शाम की पूजा करता हूँ,
मैं जाम की पूजा करता हूँ;
जो सबको देती है हाला
जो सबका भरे सदा प्याला,
उस साकी का हो कोई भी नाम
उस नाम की पूजा करता हूँ,
मैं जाम की पूजा करता हूँ.
Wednesday, December 06, 2006
पुल का दर्द
एक छोटा सा गाँव
उसमें एक नदी
जिसपर एक पुल थी.
पुल नया-नया तैयार था
शायद इमानदार ठेकेदार था;
लोग उसपर चलते थे
देख उसे मचलते थे,
एक दिन उसपर से
एक भारी वाहन गुजर गया,
पुल का तो भाग्य ही संवर गया,
उसने पूरा दर्द चुपचाप सहा,
वाहन उसपर से गुजरा है
इसी खुशी में मग्न रहा;
और उधर वाहन
आते वक्त तो पुल को देखा
मुस्कुराया भी
और उसपर से चला गया,
मुड़कर देखा भी नही
की पुल को कितना दर्द होता है,
उसे क्या पता कि पुल भी रोता है;
अब तो वह वाहन
बार-बार आता था
फ़िर वापस जाता था,
हर बार दर्द छोड़ जाता था;
पुल बार-बार के दर्द को सह नही पाया
उसी तरह नया और मजबूत रह नही पाया,
उसका एक हिस्सा टूट गया
वाहन के काम का नहीं रहा,
लोग अब भी आते-जाते थे
कभी प्रशासन को कोसते थे,
कभी पुल देख मन मसोसते थे;
वाहन मगर फ़िर आया
पुल को उसने टूटा पाया,
उसे बहुत गुस्सा आया
उसने पुल को भी कोसा
प्रशासन को भी कोसा,
उसे वापस मुड़ना पड़ा
किसी और पुल की तलास में
मंजिल प्राप्ति की आस में...
उसमें एक नदी
जिसपर एक पुल थी.
पुल नया-नया तैयार था
शायद इमानदार ठेकेदार था;
लोग उसपर चलते थे
देख उसे मचलते थे,
एक दिन उसपर से
एक भारी वाहन गुजर गया,
पुल का तो भाग्य ही संवर गया,
उसने पूरा दर्द चुपचाप सहा,
वाहन उसपर से गुजरा है
इसी खुशी में मग्न रहा;
और उधर वाहन
आते वक्त तो पुल को देखा
मुस्कुराया भी
और उसपर से चला गया,
मुड़कर देखा भी नही
की पुल को कितना दर्द होता है,
उसे क्या पता कि पुल भी रोता है;
अब तो वह वाहन
बार-बार आता था
फ़िर वापस जाता था,
हर बार दर्द छोड़ जाता था;
पुल बार-बार के दर्द को सह नही पाया
उसी तरह नया और मजबूत रह नही पाया,
उसका एक हिस्सा टूट गया
वाहन के काम का नहीं रहा,
लोग अब भी आते-जाते थे
कभी प्रशासन को कोसते थे,
कभी पुल देख मन मसोसते थे;
वाहन मगर फ़िर आया
पुल को उसने टूटा पाया,
उसे बहुत गुस्सा आया
उसने पुल को भी कोसा
प्रशासन को भी कोसा,
उसे वापस मुड़ना पड़ा
किसी और पुल की तलास में
मंजिल प्राप्ति की आस में...
हवा की रोक-टोक
किसी ने हवाओं को रोका था
फिर हवा उसे रोक रहे थे,
किसी ने फिजाओं को टोका था
फिर फिजा उसे टोक रहे थे...
पर हवाएं तो रूकती नहीं
फिर वो क्यूँ रुक गई थी,
या किसी आत्म-तेज के
आगे झुक गई थी;
पर उसने रोका तो था
कोई स्वार्थ तो जरूर होगा,
क्यूंकि हर कोई यहाँ स्वार्थ में अँधा है,
कोई पवित्र नहीं यहाँ सब गन्दा है;
तो फ़िर उसका स्वार्थ क्या होगा
शायद यही कि
और लोग घुट-घुट मरे
सारे टूट-टूट गिरे ?
पर ऐसा नही हुआ होगा
और लोग आ नहीं सके होंगे
क्यूंकि हवाओं ने ख़ुद को रोक दिया था,
वे वापस जा नहीं सके होगे
क्यूंकि हवाओं ने उस को रोक दिया होगा;
उसे ही घुटना पड़ा होगा
उसे ही टूटना पड़ा होगा,
और अब तक टूट चुका होगा;
पर अब खुश होगा शायद
की अब हवा नही रुकेंगे
और वह भी उठ सकेगा
एक साँस के लिए
वेदना का अहसास लिए.
फिर हवा उसे रोक रहे थे,
किसी ने फिजाओं को टोका था
फिर फिजा उसे टोक रहे थे...
पर हवाएं तो रूकती नहीं
फिर वो क्यूँ रुक गई थी,
या किसी आत्म-तेज के
आगे झुक गई थी;
पर उसने रोका तो था
कोई स्वार्थ तो जरूर होगा,
क्यूंकि हर कोई यहाँ स्वार्थ में अँधा है,
कोई पवित्र नहीं यहाँ सब गन्दा है;
तो फ़िर उसका स्वार्थ क्या होगा
शायद यही कि
और लोग घुट-घुट मरे
सारे टूट-टूट गिरे ?
पर ऐसा नही हुआ होगा
और लोग आ नहीं सके होंगे
क्यूंकि हवाओं ने ख़ुद को रोक दिया था,
वे वापस जा नहीं सके होगे
क्यूंकि हवाओं ने उस को रोक दिया होगा;
उसे ही घुटना पड़ा होगा
उसे ही टूटना पड़ा होगा,
और अब तक टूट चुका होगा;
पर अब खुश होगा शायद
की अब हवा नही रुकेंगे
और वह भी उठ सकेगा
एक साँस के लिए
वेदना का अहसास लिए.
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