Friday, December 29, 2006

बूँद और मोती

बारिश की कुछ बूँदें
जब धरती पर आई थी,
तीन तरह से धरती पर
स्वागत उसने पायी थी,

पहली बूँद चली इठलाती
अपनी किस्मत पर बलखाती
गिरी लौह की तप्त धार पर
राख बनी अस्तित्व मिटाती,

दूजी बूँद जरा संभलकर
गिरी पुष्प की पंखुरियों पर,
दिखने में मोती सी लगी
अगले पल मिटटी में मिली...

भाग्य प्रबल था तीजी का
एक सीप उसके लिए खुला था,
सत्य-प्रेम के सीप के अंदर
मोटी बन गई आगे चलकर।

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