ये अँधेरी रात है पर
अनगिनत है दिये यहाँ
इन दीयों की दीप्ती में
जगमगाता दिख रहा हूँ,
आज मैं कुछ लिख रहा हूँ;
जगमगा लो द्वार-घर तुम
और जगत संसार अब तुम
एक लपट दिखाने इस जग को
जलता हुआ मिट रहा हूँ,
आज मैं कुछ लिख रहा हूँ;
अनगिनत इस पथ गए पर
वो निशानें अब कहाँ
उन निशानों को ढूंढता
पत्थरों से पिट रहा हूँ,
आज मैं कुछ लिख रहा हूँ.
Saturday, December 23, 2006
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