शांत तरंगें सरिता की
लहरें बनकर आती है,
देख रहा हूँ कश्ती को
जो लहरों से टकराती है;
साहिल पर बैठा-बैठा
देख-देख मन बहलाता हूँ,
लहरें उठती और गिरती है
तट पर ही पछताता हूँ;
साहिल पर बैठे हमने
कश्ती को चलते देखा है,
लहरों से टकराकर उसको
टूट बिखरते देखा है;
सपनो की नौकाएं आती
जीवन रुपी सरिता में,
साहस का पतवार थामकर
नाविक कोई उतरता है;
धाराओं में जाकर वह
भंवरों से टकराता है,
कोई लहरों में रह जाता है
कोई फ़िर से साहिल पाता है;
देख-देख इन लहरों को अब
मन में लहरें भरता हूँ,
कोई कश्ती लेकर फ़िर से
लहरों में आज उतरता हूँ.
Friday, August 11, 2006
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