Tuesday, November 06, 2007
मैं और तुम
मैं उसी नदी का एक किनारा ,
तुम तेज गति से चलती हो
और शांत सा स्वभाव हमारा ;
सागर-मिलन को उत्सुक तुम
मैं इंतजार करता बेचारा ,
दिल को छूकर कह देती हो
साथ ना होगा कभी हमारा ;
तुम तो कोई राह नयी हो
मैं थका हुआ एक राही हारा,
एक बार कभी रुक जाओ
थाम सकुं मैं हाथ तुम्हारा ।
Wednesday, October 03, 2007
नागमणि
हाय रे विधाता
ये तुमने क्या किया
इतनी बहुमूल्य मणि
किसके सिर पर दे दिया
एक तो वह नाग है
दुष्टता की आग है ...
हर फन में उसके
जहर ही जहर है ,
क्रोध में उसके
कहर ही कहर है ;
उसके सिर पर नागमणि
हे विधाता
तु कैसा महादानी ?
सुनकर विधाता घबराये
फिर हौले से मुस्कुराये
वह कोई मणि नही
चमकता पत्थर मात्र है ,
वो तुच्छ नाग ही
जिस तुच्छता का पात्र है ,
वह बहुमूल्य इसलिये है
की उस दुष्ट के पास है ,
दुर्लभ जिसकी आस है ;
मैंने फिर नागमणि की ओर देखा
देखकर ललचाया
फिर सोच मन बहलाया
ये तो बहुमूल्य नाहीं है
शायद !! विधाता ही सही है ...
Wednesday, September 26, 2007
नाग और नेवला
नागजी से हुई नेवला की मुलाकात,
बातचित की हुई शुरुआत;
नेवला ने कहा प्रणाम
नागजी बोले राम-राम,
अरे नेवला
तुम्हारा नाम हमने बहुत सुना है
बोल तो सही तेरा 'credential' क्या है?
नेवला को 'english' भला आया नहीं
'credential' मतलब समझ पाया नहीं,
बोला नागजी
वैसे तो बहुत है
मगर आप अपनी बता देते
तो हम अपनी अनुमान लगा लेते;
नाग कुटिलता से हंसा
की नेवला बेचारा तो फंसा,
देखो पास है नागमणि ये
साथ में नागिन रानी ये,
मेरे कोप से मेढक,चूहे भागते हैं
कुछ तो रात-रात भर जागते हैं,
मेरे गरल-दंश से इंसान परेशान है
मनाता नाग-पंचमी, मानता भगवान् है;
शंकर का मित्र,विष्णु का सवारी
दुनिया कहती मैं हूँ इच्छाधारी;
बोलकर नागजी किए अट्टहास
नेवला रह गया चुपचाप,
वह सोच में पड़ गया
सोचकर अफ़सोस कर गया,
सचमुच उसे तो नागिन लोग भी प्यार करती है
मुझे तो देखते ही फुफकार भरती है,
लोग उसकी पूजा करते हैं
मुझे बच्चे भी छेड़ते हैं,
नागजी तो GOD आदमी है
मुझमें ही कुछ कमी है,
नाग हँसते-हँसते चला गया
नेवला सोचते ही रह गया.....
मैं --एक सवेरा
ना ही निशा का साया हूँ ,
मैं एक सवेरा इस युग का
धरती की धुन्धिल काया पर
किरणे मधुर फैलाता हूँ ;
नहीं पिटारी जादू की
ना ही कोई माया हूँ ,
मैं एक सपेरा इस युग का
सर्पों का भी मन बहलाने
चंचल बीन बजाता हूँ ;
नहीं मैं कोई कल्पना कोरी
ना ही किसी का छाया हूँ ,
मैं एक चितेरा इस युग का
पकड़ तुलिका इन हाथों में
रंगों को बिखराता हूँ ;
नहीं फरिस्ता इस दुनिया का
ना ही कुछ कहने आया हूँ ,
मैं एक लुटेरा इस युग का
लूट तुम्हारे भावों को
कविता नया बनाता हूँ ।
Saturday, August 18, 2007
याद
उस मौसम की मस्ती में
हौले हौले तुम हंसती थी
उन यादों को भुला गया
तुमको भूल नही पाया ;
सावन की रिम-झिम बूंदों ने
तेरे पायल की छन-छन को
स्मृति-पटल पर फ़िर लाया
तुमको भूल नही पाया ;
बादल से ये नैन तुम्हारे
चंचल मन सुन्दर चितवन
कंचन सी तेरी वो काया
तुमको भूल नही पाया ;
इस दुनिया से दूर कही
सपनो को जहाँ भय नही
स्वप्न मूझे वहीं ले आया
तुमको भूल नही पाया ॥
Sunday, June 24, 2007
वेदना और बहुव्यक्तितव
किसी मन में गहरी वेदना है
अगर तीव्र उसकी संवेदना है,
तो कभी-कभी सोचता हूँ
उसका क्या हाल होता होगा
कैसे वह गम पीता होगा
कैसे जीवन जीता होगा ?
क्या उसके ह्रदय में घुटन
का अहसास नही होता होगा?
क्या उसका मन नही रोता होगा ?
शायद होता ही होगा उसे
अनेक दुखों का अहसास ,
विकल होता होगा ह्रदय
रूकती रहती होगी सांस ;
मगर साँसे रूक सकती नही
उसे जीवन में विश्वास है ,
अगर दुःख उसे अनायास है
तो शायद दवा भी पास है ;
जो समस्यायों से जूझता होगा
उसी के पास समाधान होता होगा,
उस व्यक्ति के अन्दर ही एक
अलग व्यक्तित्व का निर्माण होता होगा,
उस व्यक्ति को अगर ये ज्ञान नही
तो वो बिल्कुल परेशान होता होगा ;
क्यूंकि वो अलग व्यक्तित्व ही
दुःखों का समाधान करता होगा ,
जिसका प्रतिकूल सा असर
उस व्यक्ति पर भी पड़ता होगा ;
आज इस निराशा के दौड़ में
सब के सब ही लोग हतास हैं,
यही एक वजह है कि आज
बहुव्यक्तित्व सबके पास है ॥
-Related with Freud theory of psychology-
Friday, May 18, 2007
आत्म-छवि और अंतर्द्वंद
हम जिस पर विचार करते हैं
और नही व्यवहार करते हैं ,
जिसपर सिर्फ़ हम सोचते हैं
जिसका सत्य नही खोजते हैं ,
जो कल्पना के दर्पण में
हमारा मन बहलाता है ,
वह आत्म-छवि कहलाता है ।
आत्म-छवि हमारा ही एक रूप है
हमारे स्वप्न का एक स्वरूप है ,
स्वप्न के बाहर भी एक संसार होता है
संसार भी हर छवि का एक बीज बोता है,
वह बीज भी वृक्ष बन जाता है
जो सामाजिक छवि कहलाता है
सामाजिक छवि का अपना ही मान है
जिसका हर किसी को सदा ध्यान है ।
कभी आत्म छवि तो उससे मेल खा जाते है
कभी आईने में उलटी तस्वीर नज़र आते है ,
और तब दोनो छवि आपस में टकराते है
समाज के साथ हम भी परेशान हो जाते हैं ,
इस टकराव का कभी परिणाम आता है
कभी यही एक 'अंतर्द्वंद' बन जाता है ।
ये अंतर्द्वंद एक स्थिति है
जिसमें विजय की आस नही ,
करते हम प्रयास नही
रहता मन में विश्वास नही ,
हार कर भी जीत का आभास होता है
कभी जीत कर भी मन बहुत रोता है ,
समाज से कह दो मेरी छवि छीन लें
अब मैं आत्म-छवि अपना रहा हूँ ,
अब अंतर्द्वंद करने की ताक़त नही
मैं तुमसे द्वंद करने आ रहा हूँ॥
-A conflict between Ego and Superego- related to Freud theory of psychology-
Tuesday, May 15, 2007
अंधकार
मूझे डर लगता है अंधकार से
किसी अपशकुन के विचार से,
शायद इसलिये देता हूँ प्रहार कर
हर जगह किसी अन्धकार पर ।
हम प्रहार उसी पर करते हैं
जिनसे हम किसी तरह डरते हैं ,
कोई हम पर प्रहार करता है
शायद हमसे वह डरता है ।
हम अन्धकार से डरते हैं
अन्धकार हमसे डरता होगा ,
हम अन्धकार से लड़ते हैं
अन्धकार हमसे लड़ता होगा ।
अन्धकार में जीने की आदत नही
उजाले की कोशिश में रहता निरंतर ,
तमसो माँ ज्योतिर्गमय जपता
आता रहा हूँ युग और युगान्तर ।
आओ अन्धकार मैं ललकारता हूँ
डरता हूँ मगर मैं मजबूर हूँ ,
कितना भी कमजोर कर दे मुझे
ताक़त से अब भी मैं भरपूर हूँ ॥
- Possessed by some brutal Superego-who speak here-it seems so-That time I was in major depression and write these lines-
Tuesday, April 17, 2007
सूर्यग्रहन
एक दिन जब सूर्यग्रहन आता है
चंद्रमा सूर्य पर जा छाता है,
सूर्य का तो तेज चला
उसको लगा
ये तो अन्याय हो
पर चंद्रमा क्या करता
उसने तो एक ही राह अपनाया है,
ग्रह, नक्षत्र और तारे
जब जो मिला उसपर वो छाया है;
पर आज उसी राह पर सूर्य है
वह बहुत प्रयास करता है,
तरह-तरह के जज्वात भरता है;
कि रूक जाता हूँ
पर उसे बढ़ना पड़ा
सूर्य पर चढ़ना पड़ा.
पर सूर्य ये नही बतलाता है
कहने से भी कतराता है,
कि उसने कब चद्रमा पर न्याय किया है?
कभी पूरा तो कभी आधा प्रकाश दिया है.
पर चंद्रमा चुपचाप रहाअमावश्या कि रजनी आयी
उसने पर इन्तजार किया था,
पूर्णिमा धरा पर छायी
उसने जग को गुलजार किया था;
इसलिये सूर्य कि शिकायत का अर्थ नही है,
ये सूर्यग्रहन भी अब कोई अनर्थ नही है॥Sunday, April 08, 2007
इम्तिहान
मुझे तुमसे दोस्ती का हक़ नही क्यों,
पूरी दुनिया से तुझे बेरुखी है
मुझपर तुम्हें कोई शक नही क्यों?
मैं भी उसी जमाने की उपज हूँ
जिस जमाने से सारे लोग डर रहे हैं,
कोई फरिस्ता नही मैं इस धरती पर का
क्यों लोग मुझपर विश्वास कर रहे हैं;
कितनो को रास्ते से किनारा कर दिया है,
ये बात अलग है की इन कारणों ने ही
हालत ये नाजुक हमारा कर दिया है;
कब तक हमारा ही इम्तिहान होगा
लोग यहाँ पंक्ति में कब से खड़े हैं,
यहाँ तक पहुँचने भर के लिए ही
ये न जाने कितनो से कब तक लड़े हैं;
इम्तेहां ये इंतजार की हो गई अब
नतीजे को अब तो निकलना ही होगा,
तुम्हें चलना होगा खंजर की धार पर
या मुझे इन धारों पर चलना ही होगा।
Saturday, April 07, 2007
मैं मान गया
बचपन में अपने गाँव में
आम के पेड़ों की छाँव में
मिट्टी पर मैं लोटना चाहता था
गिल्ली-डंडा खेलना चाहता था
तो माँ ने मना किया
कि तुम तो
अच्छे बच्चे हो
बिगाड़ जाओगे,
और मैं मान
कुछ बड़ा होकर स्कूल में
मस्ती की भूल में
भागकर सिनेमा देखना चाहता था
गाली-गलौज करना चाहता था
तो शिक्षकों ने मना किया
कि तुम तो
अच्छे बच्चे हो
बिगड़ जाओगे ,
और मैं मान गया ....
कालेज में जब आया
मन मेरा भी भरमाया
किसी ने नही समझाया
……...................
पर मैं तो
अच्छा बच्चा हूँ
बिगाड़ जाऊंगा …
और मैं मान
-The Superego is related to your childhood-
Friday, April 06, 2007
शुतुरमुर्ग
शिकारी को उसे पहचानना विल्कुल ही आसान है,
इसलिए वह अपनी लम्बी गर्दन से परेशान है;
समझ नही इस दुनिया कि इतना वो नादान है,
सिर्फ वह अपनी लम्बी गर्दन से परेशान है;
एक दिन रेगिस्तान में कोई शिकारी दिख जाता है,
अपनी लम्बी गर्दन वो बालू में छिपाता है;
काया भी विशाल उसकी ये देख नही पाटा है,
सिर्फ वह अपनी लंबी गर्दन ही बचाता है;
उसकी इस हरकत पर शिकारी भी हैरान है,
शिकारी का शिकार होता और भी आसान है;
गलती जो करता वह देता उसपर नही ध्यान है,
सिर्फ़ वह अपनी लम्बी गर्दन से परेशान है।।
-Arrogant is dangerous-
Friday, March 30, 2007
कस्तूरी
जब उस मृग को लगती है,
वो बेचैन हो उठता है,
इधर-उधर नज़र दौड़ाता है
पर वह कुछ नहीं पाता है,
तरुओं में ढूँढता है
उनके पत्तों में ढूँढता है,
डाली-डाली में ढूँढता है,
फूलों कि क्यारी में ढूँढता है;
उसके इस बाबलापन पर
फिजायें मुस्कुराती है,
हवाएं सनसनाती है,
पर कोई कुछ नहीं बताती है;
मृग और परेशान होता है
पूर्णरुपेन चैन खोता है,
पर्वतों को छलान्गता है
झरनों में फांदता है,
समंदर को सोचता है
सितारों में खोजता है;
उसके इस नादानी पर
बादल खिलखिलाता है
बिजली आँखें मटकाती है
पर कोई कुछ नहीं बताती है;
एक दिन फिर थक जाता है
आराम करते हुए पाता है
कस्तूरी कि गंध तो यहीं है
पर आस-पास कुछ भी नही है;
वह अब भी परेशान है
दुनिया से हैरान है
अब तो कोई उसे बता दे
उसी के पास कस्तूरी है,
जिसके लिए तय किये उसने
लंबी-लंबी दूरी है।।
-The greatest fear of you lies in your inside-
कठपुतली
कोई कठपुतली
करतब दिखाते हुए,
गलती से यही समझ बैठा
कि वह कारामती है;
कितनी बार गिरता है
गिरकर फ़िर उठता है
और करतब दिखाता है
पर समझ नही पाता है
कि ये तो उनका प्रयास है
इनकी डोर जिसके पास है;
आख़िर वह थक जाता है
फ़िर भी करतब करते हुए
ख़ुद को वह पाता है,
तब उसे समझ आता है
कि वो किसी डोर से बंधा है
जो किसी और के पास है
ये उन्ही का प्रयास है।।
-every human bound by nature-
बंधन
जो बाँध चुका अपना तन-मन,
व्यावहारिकता का ये बंधन
जो रोक चुका अपना जीवन;
बंधन का कुछ करना होगा
जीवन से ही लड़ना होगा;
साँसे लेना इस जीवन में
सिर्फ़ महत्वपूर्ण नहीं है,
खुलकर जबतक जी न लो
जीवन ये पूर्ण नहीं है;
उस जीवन से भी डरना होगा
जीवन से ही लड़ना होगा;
शायद एक कोई कल्पना
जिसे अब मान चुका बचपना
जीवित उसको करना होगा
जीवन से ही लड़ना होगा ....- Poet here lost his all inner desire-
Tuesday, February 27, 2007
अतीत
भविष्य दिखता धुंधला सा,
बीच फंसा कोमल सा मन
जाता है अब तिलमिला सा;
अतीत के किसी दर्पण पर
देखकर अपनी तस्वीर कोई,
भविष्य के पन्नो पर
लिखता हूँ तकदीर नई;
अतीत से जो भी सीखता हूँ
वर्तमान में सही होता है
वर्तमान अतीत में बदल जाता
और वो अपना मूल्य खोता है;
ख़ुद को समझाता हूँ
कि जो है वो सही है,
दुनिया देखकर चिल्लाता हूँ
कुछ भी बेहतर नहीं है;
अतीत से लिपटा हुआ
अतीत को ढोता हुआ,
वर्तमान से हो विमुख
अतीत पर रोता हुआ;
ये अतीत का भूत मूझे
अंदर से खा जायेगा,
जब तक कोई वर्तमान का
पारखी नही आ जायेगा…।
-Poet may be suffering from personality disorder- it seems so-
Friday, February 23, 2007
प्रतिशोध
के बंडल में,
बदले की चिंगारी जली
प्रतिशोध का ज्वाला
धधक उठा....
जीवन की सुंदर
बगिया में
जाने कैसे आग लगी
प्रतिशोध का ज्वाला
धधक उठा...
पत्थर पत्थर से टकराया
चिंगारी कोई सुलग गया
लकड़ी का एक अदना टुकड़ा
जलता हुआ मशाल बना,
जंगल-जंगल आग लगी फ़िर
सृष्टि जलकर राख हुआ..
ये प्रतिशोध किसी पत्थर का
या उस तरु की टहनी की होगी,
जिसने सुलगाया दावानल ये
कुछ बातें कहनी ही होगी..
इन प्रतिशोध की ज्वाला में
धधक रहा सम्पूर्ण जगत
कभी तो बादल बरसे इसपर
या कोई इन्द्र हो आज प्रकट.....
-Don't unerestimate your action-
Sunday, February 18, 2007
प्रायश्चित
जुर्म की डगर पर चलकर
क्या मिला बोलो ये तुझको,
गलत राह यह अपनाकर
खुशी मिली क्या तेरे दिल को;
हे नर-व्याघ्र तुम जगत में
प्रायश्चित के भागी हो,
तुम कलंक इस मनुजता के
मेरे लिए एक अपराधी हो;
झाँक कर देख ले मन में
अब भी तुझमें सच्चाई है,
दिल से इतने बुरे नहीं तुम
अब भी तुझमें अच्छाई है;
अपने अंदर को जरा टटोलो
ख़ुद को इक आवाज़ लगा दो,
कुछ तो तुम प्रयास करो
अंदर सोया इंसान जगा दो ।।
-Your inner soul begging a redemption from you-
Thursday, February 15, 2007
खंजर
सब लोहों का मित्र परम
एक दिन भट्टी में कूद गया
तपकर हो गया गरम-गरम,
एक हथोडा चला फ़िर उसपर
विस्तृत उसका आकार हुआ
खंजर का स्वरुप लिया वह
चमकीला उसका धार हुआ.
Monday, February 12, 2007
बदलाव
बदल देती परंपरा
नियम जाती चरमरा
रिश्तों को तोड़ देती है
कोई ज़ंग छेड़ देती है,
किसी एक सपने के लिए
कितने सपने टूट जाते हैं
कोई एक आगे आता है
कितने छूट जाते हैं,
क्या परंपरा सही नहीं है
जो बातें गाँधी ने कही है
सच तो ये है
की कमजोर तुम हो
ख़ुद को नहीं बदल सकते हो
इसलिए दुनिया बदलने चलते हो...
दुनिया बदलते ही रहते हैं
अगर बदलना कुछ चाहते हो
तो पहले ख़ुद को बदलो
फ़िर दुनिया भी बदलेगा
इक परंपरा पर चलेगा
इक बदलाव आएगा
कोई सैलाव छायेगा
नहीं कोई रिश्ते टूटेंगे
नहीं कोई ज़ंग फूटेंगे
फ़िर ये जग अपना होगा
हर इक का सपना होगा....
-hmmm poet is philosophical here-
Sunday, February 11, 2007
गुलाब का फूल
ये गुलाब का फूल
प्रतीक है सौंदर्य का
सुंदरता की भाषा है
प्रेम की परिभाषा है
हर दिल की अभिलाषा है
चाहत है, इक आशा है,
इनकी पंखुरियों की ताजगी
मन में रौनकता ला देती है
विचारों में एक
नयापन सा जगा देती है,
भावनावों का समंदर
ह्रदय में बहा देती है
आत्मा का परमात्मा से
मिलन करा देती है.
ये गुलाब का फूल
जिसे देख हम जाएँ भूल
अपने अंदर के अवसादों को
हर छिपे बुरे इरादों को
ये गुलाब का फूल
जो सुंदरता की भाषा है
प्रेम की परिभाषा है।
Monday, February 05, 2007
पर लिखता रहूँगा
कुछ ग़लत
कुछ इधर की
कुछ उधर की
कभी यहाँ
तो कभी वहाँ
मैं लिखता रहूँगा....
कभी ख़ुद की कहानी
कभी औरों की जुबानी
कभी कोई पहेली
कभी चंपा-चमेली
कभी गाथा किसी की
कभी दुविधा सभी की
मैं लिखता रहूँगा....
फूछ्ना मत
कि मैं कौन हूँ
क्यूँ मौन हूँ,
आवाज़ बचा रखता हूँ
सिर्फ़ तुझे परखता हूँ
कुछ सही फ़िर कुछ ग़लत
आकर तब मैं लिखता हूँ,
शब्द की घुटन कौन सहे
कब तक कोई मौन रहे
कोई सुननेवाला न हो
बोलो फ़िर वो कैसे कहे,
ये कलम एक माध्यम है
अपनी घुटन मिटाने का
अपना जादू दिखाने का
शब्दों में उलझाने का
मैं बार-बार
तुझसे पिटता रहूँगा
पर लिखता रहूँगा।
Sunday, February 04, 2007
व्यक्तित्व
ये व्यक्तित्व
बतलाता है आपके विचार
बतलाता है आपके व्यवहार,
और लाता है आपमें
एक अद्भुत निखार;
ये पारदर्शी होता है
दूर से ही झलक जाता है
नजरों में छलक जाता है
जब भी एक दरश पाता है.
तो क्या वो
शीशे की तरह तुनक होता है
जो गिरते ही अपना अस्तित्व खोता है,
ये तुनक नहीं
गीली मिटटी की तरह
मुलायम होता है
जो गिरकर अस्तिस्त्व नाहीं
अपना आकार खोता है,
गीली मिटटी जो आकार चाहे पा सकता है
उसे कैसा भी बनाया जा सकता है,
निर्भर करता है कुम्भकार पर
वो कितना ध्यान देता है
किसको कैसा रूप देता है,
सचमुच ही व्यक्तित्व
खत्म नहीं होता
बस स्वरुप बदलता है,
पर जो चोट खाकर भी
अपना आकार नहीं खोता है
वो कोई परिपक्व होता है
ये परिपक्वता आती है
जब माटी आग में तपता है
व्यक्तित्व ठोकरें सहता है...
आज फ़िर कोई मिटटी पककर तैयार है
फ़िर से हर्षित कोई कुम्भकार है॥
-Poet fantasy about his personality-
Tuesday, January 30, 2007
तकरार
Friday, January 19, 2007
मजदूर
जिसकी कला को संसार सराहे
वो फन का माहिर मजदूर है,
जिसके जौहर की मची है धूम
वो कामगार मजदूर है,
माटी से जो फसल उगा दे
वो अन्नदेव मजदूर है,
एक पत्थर को जो ताज बना दे
वो शिल्पकार मजदूर है,
एक पत्थर को जो ताज बना दे
वो मजदूर बड़ा मजबूर है,
एक पत्थर को जो ताज बना दे
एक रोटी से वो दूर है
एक पत्थर से जो ताज बन जाए
बनता मालिकों का गुरूर है,
एक पत्थर को जो ताज बना दे
एक रोटी से वो दूर है.
iitb presents in chaos 07 ...this is my part...interesting....but sorry we miss the street-play compt due to bad-luck in travelling.
Tuesday, January 09, 2007
शिखर
और देखता रहा
निहारता रहा
कुछ सोचता रहा
विचारता रहा,
कितना भव्य है ये
क्या किस्मत पायी है
कितनी ऊंचाई है,
पर तभी देखा
उनपर छाए हिम-पिंडों को
दूर भागते विहग-झूंडों को
मुझे फ़िर सोचना पड़ा
विचारना पड़ा
शिखर ओ शिखर
पुकारना पड़ा,
तुम कैसे रहते हो
कैसे इतना सहते हो,
जल भी जहाँ कठोर हो जाते है
पौधे जहाँ सदा सो जाते है,
अकेलापन तुझे तो खटकता होगा
तेरा मन नहीं भटकता होगा?
Monday, January 08, 2007
अकेलापन
किसी निर्जन वन
में अकेले रहने से नहीं आता है,
वो आता है
जब आसपास के लोगों की
भाषा समझ में नहीं आती,
उनके रचे हुए जीवन की
परिभाषा समझ में नहीं आती;
आज मैं अकेला हूँ
आसपास हैं लोग अनेक
सबके चेहरे देखते हुए
भी पहचान नहीं पाता हूँ,
बिना कोई आवाज़ दिए
अपने बढे कदम वापस लाता हूँ,
डर रहता है आवाज़ खोने का
डर रहता है गुमनाम होने का
दुनिया की भीड़ में
उलझे हुए चीड में
सवाल भी उलझ रहे हैं
अकेलापन ये है क्या?