Friday, December 29, 2006

बूँद और मोती

बारिश की कुछ बूँदें
जब धरती पर आई थी,
तीन तरह से धरती पर
स्वागत उसने पायी थी,

पहली बूँद चली इठलाती
अपनी किस्मत पर बलखाती
गिरी लौह की तप्त धार पर
राख बनी अस्तित्व मिटाती,

दूजी बूँद जरा संभलकर
गिरी पुष्प की पंखुरियों पर,
दिखने में मोती सी लगी
अगले पल मिटटी में मिली...

भाग्य प्रबल था तीजी का
एक सीप उसके लिए खुला था,
सत्य-प्रेम के सीप के अंदर
मोटी बन गई आगे चलकर।

तुम और चिंतन

मन में उभर रही हो
तन पे संवर रही हो
पता नहीं क्यूँ तुम ही
चिंतन में ठहर रही हो,

अब तन सुलग रहा है
अब मन सुलग रहा है
साथ तेरा पाकर मेरा
जीवन सुलग रहा है,

किस वक्त का इंतजार है
किस बात की तकरार है
जो दिल है तेरा कह रहा
क्यूँ तुझे इनकार है...

ह्म्म्म्म्म...

Saturday, December 23, 2006

कुछ लिख रहा हूँ

ये अँधेरी रात है पर
अनगिनत है दिये यहाँ
इन दीयों की दीप्ती में
जगमगाता दिख रहा हूँ,
आज मैं कुछ लिख रहा हूँ;

जगमगा लो द्वार-घर तुम
और जगत संसार अब तुम
एक लपट दिखाने इस जग को
जलता हुआ मिट रहा हूँ,
आज मैं कुछ लिख रहा हूँ;

अनगिनत इस पथ गए पर
वो निशानें अब कहाँ
उन निशानों को ढूंढता
पत्थरों से पिट रहा हूँ,
आज मैं कुछ लिख रहा हूँ.

Thursday, December 21, 2006

मैं भूल चुका हूँ

बीती बातें मत
याद दिलाना

मैं भूल चुका हूँ,
जख्मो पर मत
नमक लगाना

मैं भूल चुका हूँ,

कितने फांसी के
तख्तों पर

मैं झूल चुका हूँ,
पर गलती मत
याद दिलाना

मैं भूल चुका हूँ।

Wednesday, December 20, 2006

पतझड़ का एक पेड़

देखा मैंने पतझड़
पतझड़ का एक पेड़,
उस पर न ही पत्ते थे
न ही मधु के छत्ते थे,
मगर वह खड़ा था
अकड़ कर अडा था,
मैं देखता रहा
देख सोचता रहा
कि पेड़ क्यूँ खड़ा है,
अकड़ क्यूँ अडा है...

समयचक्र चलते रहे
पर हम आखें मलते रहे,
पेड़ पर पत्ते नहीं आए
पंछी नहीं चाह्चहाये,
मगर पेड़ खड़ा था,
अजीब नज़ारा था...

वक्त ने बदली करवटें
मधुमास धरा पर छा गया,
मैंने देखा पेड़ पर
पंखुडियां कहीं से आ गया,
पेड़ तब भी खड़ा था
पर कुछ हरा-भरा था,
धीरे-धीरे पत्ते आने लगे
पंछी चहचहाने लगे,
छाया धरती पर छाने लगे
मोर-पपीहे नाचने-गाने लगे,
मगर पेड़ खड़ा था
अजीब नज़ारा था...
मैंने देखा
पेड़ का धैर्य
उसकी सहनशक्ति,
उसका साहस
उसकी हिम्मत
अंत में किस्मत;
मैं समझ गया
पेड़ क्यूँ खड़ा था
अकड़ क्यूँ अडा था.....

Friday, December 15, 2006

पूजा

जो सुबह पिलाती हो हाला
जो शाम भरे मेरा प्याला,
उस सुबह की पूजा करता हूँ
उस शाम की पूजा करता हूँ,
मैं जाम की पूजा करता हूँ;

जो सबको देती है हाला
जो सबका भरे सदा प्याला,
उस साकी का हो कोई भी नाम
उस नाम की पूजा करता हूँ,
मैं जाम की पूजा करता हूँ.

Wednesday, December 06, 2006

पुल का दर्द

एक छोटा सा गाँव
उसमें एक नदी
जिसपर एक पुल थी.
पुल नया-नया तैयार था
शायद इमानदार ठेकेदार था;
लोग उसपर चलते थे
देख उसे मचलते थे,
एक दिन उसपर से
एक भारी वाहन गुजर गया,
पुल का तो भाग्य ही संवर गया,
उसने पूरा दर्द चुपचाप सहा,
वाहन उसपर से गुजरा है
इसी खुशी में मग्न रहा;
और उधर वाहन
आते वक्त तो पुल को देखा
मुस्कुराया भी
और उसपर से चला गया,
मुड़कर देखा भी नही
की पुल को कितना दर्द होता है,
उसे क्या पता कि पुल भी रोता है;
अब तो वह वाहन
बार-बार आता था
फ़िर वापस जाता था,
हर बार दर्द छोड़ जाता था;
पुल बार-बार के दर्द को सह नही पाया
उसी तरह नया और मजबूत रह नही पाया,
उसका एक हिस्सा टूट गया
वाहन के काम का नहीं रहा,
लोग अब भी आते-जाते थे
कभी प्रशासन को कोसते थे,
कभी पुल देख मन मसोसते थे;
वाहन मगर फ़िर आया
पुल को उसने टूटा पाया,
उसे बहुत गुस्सा आया
उसने पुल को भी कोसा
प्रशासन को भी कोसा,
उसे वापस मुड़ना पड़ा
किसी और पुल की तलास में
मंजिल प्राप्ति की आस में...

हवा की रोक-टोक

किसी ने हवाओं को रोका था
फिर हवा उसे रोक रहे थे,
किसी ने फिजाओं को टोका था
फिर फिजा उसे टोक रहे थे...
पर हवाएं तो रूकती नहीं
फिर वो क्यूँ रुक गई थी,
या किसी आत्म-तेज के
आगे झुक गई थी;

पर उसने रोका तो था
कोई स्वार्थ तो जरूर होगा,
क्यूंकि हर कोई यहाँ स्वार्थ में अँधा है,
कोई पवित्र नहीं यहाँ सब गन्दा है;
तो फ़िर उसका स्वार्थ क्या होगा
शायद यही कि
और लोग घुट-घुट मरे
सारे टूट-टूट गिरे ?
पर ऐसा नही हुआ होगा
और लोग आ नहीं सके होंगे
क्यूंकि हवाओं ने ख़ुद को रोक दिया था,
वे वापस जा नहीं सके होगे
क्यूंकि हवाओं ने उस को रोक दिया होगा;
उसे ही घुटना पड़ा होगा
उसे ही टूटना पड़ा होगा,
और अब तक टूट चुका होगा;
पर अब खुश होगा शायद
की अब हवा नही रुकेंगे
और वह भी उठ सकेगा
एक साँस के लिए
वेदना का अहसास लिए.

Wednesday, October 04, 2006

दिल का दर्द

आज कुछ लिखना चाहता हूँ
पर क्या लिखूं
किसकी सुनूँ
दिल की या दिमाग की
धोका तो हर कोई देता है
दिल भी धोखेबाज़ होता है.
कभी तुम दिल की सुने हो
क्या सपने मन में बुने हो?
अब सपना क्या है
क्या कोई जल का श्रोत
या फ़िर....(ह्म्म्म्म नींद आ रही है मुझे )
नहीं आज कुछ लिख ता हूँ ....

हाँ तो सपना क्या है
क्या कोई शीशमहल
जो पल में चकनाचूर हो जाता है,
या वो बालू के घरौंदे
जिसे हिलोरें जब चाहे दूर ले जाता है.
ह्म्म्म...कोर्रेक्ट...अब...अब.. उन्न्न्न्न्न्न्न..
हाँ बालू के घरौंदे टूट जाते हैं
रेतों की दीवार बिखर जाता है,
पर एक विश्वास निखर जाता है,
क्या.....
कि दिल कोई समंदर की रेत नहीं होता
इसपर लिखा कुछ अपना निशां नहीं खोता,
जितनी कोशिश करो तुम इसे मिटाने की
जख्म उतना ही दर्द पैदा करता है,
दिल फिर भी जिन्दा रहता है, नहीं मरता है।

Friday, September 15, 2006

भूचाल

-और खेल खत्म होता है
खत्म होता है कोई जुनून,
मिलती है तो सिर्फ़ बर्बादी
पर बरबाद कौन होता है
कौन हँसता, कौन रोता है;

इस खेल में किसे क्या मिला
किसको शिकवा है किसे गिला,
सागर में तो भूचालों का
चलता रहता है कोई सिलसिला;

सागर शांत हो जाता है
लहरें थम सी जाती है,
पर सोचो उस बस्ती का भी
सदा-सदा जो मिट जाती है;

लहरों का सम्मान यही है
ये बस्ती कहीं मिटाता है,
सागर का अपमान यही है
कोई कश्ती नही डुबाता है;

पर अपमानों को सहकर भी
सागर क्या कर पाता है,
फिर लहरें कोई बलखाती है
भूचाल नया आ जाता है।

Monday, September 11, 2006

एक नज़र

ek nazar pichhle mahine par...

***malhar elims clear
final haaar gaya :((
*freshi cult orientation (hindi in speaker club roxxx)
****debating secy of h8(really a big battle...i felt the heat)
*sop box--most entrtning award...
**ek aur nazzariya (the best sophie prod...)
*meta freshi orientation (no comment...kavita roxxx)
**open elocution...5th prize (maayne to rakhta hai)
**MI competition (all hindi work ...see the site www.moodi.org )
***my article in aawaaz(me only from sophie batch..)
*only poem is there is mine...
*organizing GD sessions n working in hostel activity.
hmmmm aur kuchh baaki rah gaya kya...

Tuesday, September 05, 2006

एक नज़रिया

पिंजरे के अंदर का पंछी
देख के दुनिया ललचाता है,
दुनिया उनको भा जाता है;

हम जाकर ये समझाते
दुनिया बाहर बहुत बुरी है,
पंछी नही समझ पाता है;

फ़िर जाकर ये समझाते
देखो पिंजरे की सुंदरता,
पंछी नही समझ पाता है;

कोशिश लाखें करो मगर
उनका नज़रिया नही बदलता,
नही बदलता, नही बदलता।

ek aur nazzariya...a sophie production.

Thursday, August 31, 2006

एक और नज़रिया

शरद पूर्णिमा की रात ये
चाँद अपने यौवन पर है,
ओस गिरे हैं,सुमन खिले हैं
जगमग-जगमग डगर-डगर है,
सरिता की ये शांत लहर है,
साहिल पर बैठा कोई चकोर
चाँद देख मन बहलाता है,
चाँद भी ख़ुद पर इतराता है....

अमावस्या की रात ये
अपने गगन में चाँद कहाँ है
ओस कहाँ हैं,सुमन कहाँ है,
अन्धकार हर डगर-डगर है
सरिता में भी कहाँ लहर है,
साहिल पर बैठा वही चकोर
आंसू लाख ये बरसाता है,
चाँद भी ख़ुद पर शर्माता है ....

दिन बदले, बदला नही मौसम
और नज़रिया बदल रहा है
बदल रहा है,बदल रहा है....

...ek aur nazzariya...a sophie production....

Tuesday, August 29, 2006

शतरंज

शतरंज हम खेल रहे थे
मनो-यातना झेल रहे थे,
मैं सोच रहा टेढा-टेढा
वह सीधा-सीधा खेल दिया;
बाज़ी फिर मैं हार गया ....

चाल-चाल कुछ कहते थे
मोहरे-मोहरे बोल रहे थे,
हर स्थिति और परिस्थिति
भेद उसी का खोल रहे थे;

पर मैंने बिना सोचे-समझे
घोड़ा चला, वजीर बचाया,
खेल जीत जब वापस आया
राजा को नही जगह पे पाया;

शायद मैं था हार चुका
तब जाकर ये पता चला,
मेरे जीत पर क्यूँ हैरानी
तब जाकर ये पता चला;

शतरंज नही दो मानव का
शतरंज विचारों का केवल,
अब विचार तो टूट गया
शतरंज भी छूट गया।

Sunday, August 20, 2006

उचित अवसर

अतुल शौर्य से सुशोभित
प्रतापी वीर महादानी,
कुरुक्षेत्र की सनसनी वह
पर दम्भी महा-अभिमानी;

जिस कर्ण के भुजबल से ही
समरभूमि ये डोल रहा है,
आज समर की इस बेला में
सामने निहत्था खड़ा है;

केशव! क्या ये धर्म होगा
निहत्थे पर प्रहार करूंगा,
ले अधर्म का मैं सहारा
शत्रु का संहार करूंगा;

अर्जुन! मिटा दो शत्रु को
उचित अवसर यही है,
ये धर्म और अधर्म क्या
सोचना विल्कुल नही है;

सोच कर तुम क्या करोगे
सोचोगे तब क्या लडोगे,
पार्थ कर्म करते रहो
तभी समर-विजयी बनोगे।

Saturday, August 19, 2006

सूर्यग्रहण

एक दिन अचानक
चंद्रमा मौका पाता है
शक्ति का जोर दिखाता है,
पल भर में ही कोशिश कर
सूर्य के उपर छा जाता है;

अब सूर्य बेचारा क्या करेगा
किससे अपनी बात कहेगा,

वो चाँद कोई इस नभ का है
रात का राजा कहलाता है,
तारों के बीच संवर करके
दुनिया का मन बहलाता है;

सूर्य के बेदाग़ तेज से
दुनिया सदा जली रहती है,
चाँद पर तो दाग भी ये
दुनिया फिर भी खुश रहती है;

सूरज ने तो जल-तपकर भी
चाँद को प्रकाश दिया,
चाँद न जाने किस कारण
उस सूरज का उपहास किया;

समस्या तो ये बहुत बड़ी है
सूर्यग्रहण कोई विकट घड़ी है।

Friday, August 11, 2006

लहरों में उतरता हूँ

शांत तरंगें सरिता की
लहरें बनकर आती है,
देख रहा हूँ कश्ती को
जो लहरों से टकराती है;

साहिल पर बैठा-बैठा
देख-देख मन बहलाता हूँ,
लहरें उठती और गिरती है
तट पर ही पछताता हूँ;

साहिल पर बैठे हमने
कश्ती को चलते देखा है,
लहरों से टकराकर उसको
टूट बिखरते देखा है;

सपनो की नौकाएं आती
जीवन रुपी सरिता में,
साहस का पतवार थामकर
नाविक कोई उतरता है;

धाराओं में जाकर वह
भंवरों से टकराता है,
कोई लहरों में रह जाता है
कोई फ़िर से साहिल पाता है;

देख-देख इन लहरों को अब
मन में लहरें भरता हूँ,
कोई कश्ती लेकर फ़िर से
लहरों में आज उतरता हूँ.

Wednesday, August 09, 2006

सोच और शक्ति

आज अगर मैं झुकता हूँ
सदा-सदा को झुकना होगा,
आज अगर मैं रुकता हूँ
यही मुझे फ़िर रुकना होगा;

मैं तो सिर्फ़ सोच हूँ
वो तो कोई शक्ति है,
मैं श्रधा कोई तेरा
वो तो तेरी भक्ति है;

आज सोच क्या लड़ पायेगा
शक्ति से टकरा जायेगा,
वो टूट-टूट बिखरेगा या
समर-विजेता बन जायेगा;

भविष्य तुझे बतलायेगा
वर्तमान अभी चल रहा है,
सोच को आगे देख बढ़ते
शक्ति आज कोई जल रहा है;

अब तो दोनों टकरायेंगे
अपने-अपने सुर गायेंगे,
हम तो बस दर्शक ठहरे
चुप-चाप देखते जायेंगे.

Sunday, August 06, 2006

मल्हार 06

अटल बिहारी के वैवाहिक विज्ञापन की कुछ झलकियाँ प्रस्तुत हैं....

मत समझो मेरी उम्र गई
अब भी मुझमें यौवन संचय,
हिंदू तन-मन,हिंदू जीवन
रग-रग हिंदू मेरा परिचय;
आजन्म ब्रह्मचारी,न ही कोई कन्या निहारी
अब चाहिए उसे कोई सुकोमल सुकुमारी,
सुशील,सुंदर और शुद्ध शाकाहारी.
(ह्म्म्म्म्म...बीच की बातें नही लिखूंगा...गंदे-गंदे थे..शर्म आ रही है)
अंत में...
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूँ,
गीत नया गाता हूँ-२
शादी करने को आता हूँ-२

Saturday, August 05, 2006

शर-संधान

अर्जुन अब क्या सोच रहे हो
देखो रवि निकल आया है,
वचन-पूर्ण कर लो अपना
ये सब तो मेरी माया है;

केशव का ये देख इशारा
शर-संधान किया अर्जुन ने,
पल-भर में ही जयद्रथ को
मार गिराया भीषण रन में;

आज भी केशव जगत में
अर्जुन निज को तुम पहचानो,
वक्त की करवट को देखो
अपने निज लक्ष्य को जानो;

देख उनका भी इशारा
लक्ष्य को तुम छोड़ दोगे,
वक्त से होकर विवस तुम
कर्म से मुंह मोड़ लोगे;

फ़िर आगे तब कौन लडेगा
अभिमन्यु अभी और मरेंगे,
तेरा अंत नही है सबकुछ
युद्ध यहाँ तो चलते रहेंगे;

अपने मन में सु-विचार भर
निज-विद्या का ध्यान करो,
आज भी किसी कुरुक्षेत्र में
जयद्रथ पर शर-संधान करो।

Thursday, August 03, 2006

बदलते मौसम

मौसम कुछ-कुछ बदल रहा है..

गर्मी तो अब बीत चली है
ताप रवि का लरज रहा है,
लो साथी ये सावन आया
बादल आ-आ गरज रहा है;
मौसम......

शीत का प्रकोप भी अब
धीरे-धीरे टल रहा है,
बागों में कूके ये कोयल
फूल कोई फल रहा है;
मौसम......

इन बदले-बदले मौसम में
जीवन सारा बदल रहा है,
वो देखो अब सूरज ये भी
धीरे-धीरे ढल रहा है;
मौसम......

Wednesday, August 02, 2006

कर्म

भगवन साफ-साफ बतलाएं
क्यों मैं ऐसा युद्ध करूँ,
इस युद्ध से मुझे क्या मिलेगा
क्यों कर में गांडीव धरुं;

सुनकर हँसे श्रीकृष्ण
और बोले अर्जुन से,
हँसी आती है मुझे
तेरे वचन ये सुन के;

कर्म-भूमि समझो इसको
कर्म करने आए हो,
जगत-कल्याण हेतु तुम
धर्म करने आए हो;

कौन अपना, कौन पराया
कैसा मोह ये कैसी माया,
इस जगत को क्या दिए तुम
और क्या तुमने है पाया ?

कर्म करते रहो जगत में
मत सोचो क्या हो रहा है,
कर्म को तुम छोड़ क्यों अब
फल के लिए रो रहा है;

अर्जुन जब तुम कर्म करोगे
तन-मन ह्रदय लगाकर,
फल निश्चित ही पावोगे
ये धरती या वो अम्बर;

अम्बर जब तुम पाते हो
वीर जगत में कहलाते हो,
धरती जब तुम पाते हो
मार्ग मुक्ति का पाते हो।

Wednesday, July 26, 2006

अर्जुन मुझको बनना होगा

केशव बनकर तुम अब आओ
अर्जुन मुझको बनना है,
गीता मर्म मुझे समझाओ
कुरुभूमि में लड़ना है;

गीता-ग्यान को पाकर अब
धनुष हाथ को धरना होगा,
अर्जुन मुझको बनना होगा।

इर्द-गिर्द हैं चक्रव्यूह
धर्मराज का मन व्याकुल,
जयद्रथ के तलवारों से
अभिमन्यु मरने को आतुर;

हे स्यंदन के सारथि अब
उसी जगह को चलना होगा,
अर्जुन मुझको बनना होगा ।

दुह्शासन के हाथों ने
पांचाली का केश उजाडा,
दानवीर भी द्रुपद-सुता को
वेश्या कहकर आज पुकारा;

लाज बचालो द्रुपद-सुता की
मुझको अभी संवरना होगा;
अर्जुन मुझको बनना होगा ।

कर्ण यहाँ कितने भी हों
धरती मेरी मदद करेगी,
भीष्म-ड्रोन जितने भी हों
अर्थी उनकी यहीं सजेगी;

दुर्योधन का दमन मिटाने
तात-गुरु से लड़ना होगा;
अर्जुन मुझको बनना होगा...
अर्जुन मुझको बनना होगा.

और अंत में..........

मादक मौसम आने भी दो,
उन्मादों को छाने भी दो,
कोई स्वर्गिक सुकुमारी
उर्वसी अब आने भी दो;

भोगी नही मैं एक तपस्वी
खुलकर आज ये कहना होगा,

अर्जुन मुझको बनना होगा ॥

Tuesday, July 04, 2006

दुविधा की लहरें

सामने ये सात पहरे
सात कुंडी,सात ताले,
राह दुर्गम,खाई गहरे
बीहड़ जंगल नदी-नाले;

ताले तो मैं तोड़ दूँ पर
क्या करूँ इन पहरों का,
नाले पीछे छोड़ दूँ पर
क्या करूँ इन लहरों का;

लहर है मन में,
लहर है तन में,
पल-पल प्रति-क्षण
लहरें जीवन में;

इन लहरों से टकराकर
कश्ती टूटे साहिल छूटा,
इन शहरों में तो आकर
रिश्ते टूटे नाता रूठा;

रिश्तों की बुनियाद पर अब
टूट जाना चाहता हूँ,
ऐ जिगर के टुकड़े तुझसे
रूठ जाना चाहता हूँ;

लगन है मन में,
अगन है तन में,
कण-कण क्षण-क्षण
मगन चिंतन में;

तोड़ दूंगा पहरों को भी,
मोड़ दूंगा लहरों को भी,
रिश्तों की बुनियाद पर मैं
छोड़ दूंगा शहरों को भी.

Sunday, May 28, 2006

गाँव की तस्वीर

खेतों में, खलिहानों में,
पीपल पेड़ों की छावों में,
रहीमा-रमुआ की नावों में
घूम रहा मैं गावों में;

जहा अभी चुनावी हलचल
बादल बनकर गहराया है,
जनता में जनमत की लहर
सागर के सम लहराया है;

आरक्षण की अद्भुत महिमा
अपना भी रंग जमाया है,
पंचायत की आधी सत्ता
सबला के हाथ थमाया है;

वो सबला जिनके चेहरे पर
अबतक थी लज्जा की लाली,
निकल पड़ी घर के बाहर
कहकर जय अम्बा जय काली;

फ़िर भी दिखता है कुछ-कुछ
जंजीरें इन पावों में,
उम्मीद प्रबल पर बदलेगी
तस्वीरें इन गावों में.

शर्त....the bet

चलो तुम शर्त लगाओ...
कहना है आसान मगर
करना मुश्किल है,
जरा करके दिखलाओ,
चलो तुम शर्त लगाओ;

सुनकर मैंने सोचा कुछ-कुछ
तब मैंने बोला ये सचमुच...

धैर्य नही अब और धारूंगा
बातों से ही नही लडूंगा,
तुम्हे करके दिखलाते हैं
चलो हम शर्त लगाते हैं;

सुनकर उत्तेजित मन उसका
बोला- mr. one minute just,
how can u talk with a girl
try to learn english first;

don't take it very easy
don't think u r great,
think a while,
take a breath,
this isn't a simple bet.

मेरा ज़मीर अंदर से डोला
मुंह ये खोला,फ़िर से बोला...
तुम्हें करके दिखलाते हैं
चलो हम शर्त लगाते हैं.

Saturday, May 27, 2006

प्रेम और समर्पण

्रेम नही समझो प्रियतम
ये तो मेरा समर्पण है.

ख़ुद ही ख़ुद में भटका सा
जग की नजरों में खटका सा
हो जैसे कोई फल रसाल
किसी तरु-दाल पर लटका सा;

.......
.......
....... (censored)
.......

देख तुम्हारी आतुरता को
बादल मुझपर जल बरसाया,
मौसम अपना राग सुनाया
तेज पवन भी जोर चलाया;

देख नजारे कुदरत के ये
उचित विचार किया तरुवर ने,
अलग मुझे कर अपनी डाल से
डाल दिया मुझे तेरे कर में;

ये तो उन तरुओं की ओरसे
तुझको मेरा अर्पण है,
प्रेम नही समझो प्रियतम
ये तो मेरा समर्पण है।

Monday, May 01, 2006

कुछ तुम कह दो कुछ मैं कह दूँ

हम दूर-दूर हुए तो क्या
दिल को निकट तो आने दो,
मन के कोमल अहसासों को
सात सुरों में गाने दो।

अहसासों के भी कुछ सुन लो
कुछ तुम समझो,कुछ मैं समझूँ।

देखो मांगे क्या मेघ से मोर
चंदा से क्या चाहे चकोर,
किस निज हित हेतु ये पतंगे
लपकते अग्नि-शिखा की ओर।

अरे प्रश्नों में ख़ुद मत उलझो
कुछ तुम सोचो कुछ मैं सोचूं।

लाख-लाख मन प्रश्न पूछकर
उत्तर एक ही पाता है,
दृष्टि की दीवार भेदकर
दिल तक पहुँचा जाता है।

इन पलकों को झुकने मत दो
कुछ तुम देखो कुछ मैं देखूं।

पतझड़ तो पलभर आते हैं
फ़िर मधुवन छाता जाता है,
चातक की व्याकुलता देखकर
मेघ भी पानी बरसाता है।

अब मौसम से ही सीख तो लो
कुछ तुम बदलो कुछ मैं बदलूं।

दिलवालों के दुनिया में भी
दिल ये तनहा-तनहा है,
सदियों से अकेले में ही
कट्टा हर लम्हा-लम्हा है।


अब संकोचों के परदे हटा दो
कुछ तुम कह दो कुछ मैं कह दूँ।

Saturday, April 29, 2006

मृग-तृष्णा

मैं मृग-मानव मरूस्थल का
बूँद-बूँद पानी को तरसा ।

दूर कहीं जल-कुंड कोई था
और पेडों की परछाई थी ,
मन मेरा था मुरझाया सा
मुस्कान तनिक अब आयी थी;

प्रफुल्लित मन, तीव्र गति से
पास मैं उस जल तक आया था,
मृग-तृष्णा वह मेरी थी जो
भूमि को मृग-जल बतलाया था;

जल के बदले स्थल पर ही
उन पेडों की परछाई थी,
मिलते नही जल मरुस्थल में
सिर्फ़ यही एक सच्चाई थी.

सच पर मैं बिना किए भरोसा
तृष्णा को था समझा सच्चा,
मैं मृग-मानव मरूस्थल का
बूँद-बूँद पानी को तरसा ।।

कर्ण के संवाद

these are my fav six lines from rashmirathi...
it is the dialoge of karn to shalya...

यह देह टूटने वाली है
इस मिटटी का कबतक प्रमाण,
मृत्तिका छोड़ उपर नभ में
भी तो ले जाना है विमान.

कुछ जुटा रहा सामान
कमंडल में सोपान बनाने को,
ये चार फुल फेंके मैंने
उपर की राह सजाने को.

ये चार फुल हैं मोल किन्ही
कातर नयनो की पानी के,
ये चार फुल प्रछन्न दान
है किसी महाबल दानी के.

ये चार फुल मेरा अदृष्ट
था हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फुल पाकर प्रसन्न
हँसते होंगे अन्तेर्यामी.

समझोगे नही शल्य इसको
यह करतब नादानों का है,
ये खेल जीत के बड़े किसी
मकसद के दीवानों का है.


जानते स्वाद इसका वे ही
जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया से
अलग खड़े जो जीते हैं....:)))

Friday, April 28, 2006

वक्त का रथ

क्त का रथ अनवरत
पथ पर मगर चलता रहा।

सोचा था मैं वक्त बहुत ये
एक पर्वत को पिघला दूँगा,
बनकर भगीरथ इसी धरा पर
एक गंगा कोई बहा दूंगा।

वक्त की परवाह नही की
अपनी धुन में बेखबर था,
चाल वक्त की चपल हैं कितनी
मुझे नहीं मालूम मगर था.

चलते-चलते ठोकर खाया
देखा मैंने पीछे मुड़कर,
वक्त समीप तब मैंने पाया
पीछा करता जो छुप-छुपकर.

हुई वक्त से होड़ हमारी
वक्त को मैंने ललकारा,
ताकत झोंक दी अपनी पूरी
वक्त से फिर भी मैं हारा.

वक्त के आगे विवस हो
हाथ मैं मलता रहा,
वक्त का रथ अनवरत
पथ पर मगर चलता रहा...

Saturday, March 04, 2006

चकोर की अभिलाषा

देखा चाँद उन्मुक्त गगन में
घूम रही तारों के संग,
मुझसे बेखबर वो मगन में
झूम रही बादल के संग;

पर चाँद से मैंने कहा कब
तारों संग रहती क्यों तुम,
पागल जब ये बादल तब
उन्माद उनमें भरती क्यों तुम;

देख-देख ये दुनिया बोली
चाँद पर भी दाग ये,
पर मैंने ये कब पूछा
क्यों तुझपर है दाग ये??

अरे मैं चकोर ये जानता की
चाँद पा सकता नही हूँ,
पराक्रम नही इन परों में
उड़ पास जा सकता नही हूँ;

मैं चकोर बस चाहता हूँ
चाँद को दीदार करूँ ,
चाँद तुम जैसी भी हो अब
बस तुझे ही प्यार करूँ....
बस तुझे ही प्यार करूँ।

Sunday, February 26, 2006

मैं चाँद फिर से चमकूंगा

काली रात अमावस आज की
बरस रही तिमिर घनघोर,
चमक चाँद की लुप्त हुई
कलप रही ये नयन चकोर।

आज निशाचर जब तुम जागे
त्राहि-त्राहि बोली ये जगती,
अरे निशाकर तुम कब भागे
आलोकित कर दो ये धरती.

भागा निशाकर मैं कब पर
विद्यमान था उसी जगह पर,
देख दशा ऐसी जगती की
सोच रहा था पलकें भर-भर.

किस पाप का अभिशाप ये
अस्तित्व अपना खो रहा हूँ,
आज जरूरत जगती को जब
निश्चिंत हो क्यों सो रहा हूँ.

मैं चाँद पर करता ही क्या
चमक नही ख़ुद थे चेहरे पर,
घोर तिमिर से टकराता क्यों
जब मेरे तन गए तिमिर भर.

पर दुनिया दुविधा को मेरी
समझ नही थी पा रही,
व्यथित तिमिर से हो मुझे
कटु-वचन दिए जा रही.

मैं चाँद चिंतित मन लेकर
सुन रहे थे कटु-वचन ये,
गहन सोच में दुबकी लेकर
कर रहे मंथन-मनन ये.

अपनी खोयी चमक मैं पाकर
आसमान में फ़िर चमकूंगा,
जगती की व्याकुल ह्रदय में
स्नेह-रस मैं फ़िर भर दूँगा.

अपनी चमक की छटा से
चकोर मन कोई तरसाऊंगा ,
पूर्णमासी की रात वो होगी
अलोक जगत में बरसाऊंगा ।

Saturday, February 11, 2006

ढलता सूरज

मैं एक ढलता सूरज ही
पर कोई तो दिया दिखाओ!

बाल रवि बन जब आया था
नव सृष्टि में भरा उल्लास,
लाल छवि बन जब छाया था
हर दृष्टि में भरा विश्वास;

मैं एक उगता सूरज भी था
सब करते थे मेरा अभिनन्दन,
चारों दिशा में चहल-पहल थी
सब करते थे मेरा स्तुति-वंदन;

जलने लगा मैं अनल-पुंज बन
करने सकल विश्व आलोकित,
इस जगती की सेवा कर-कर
होने लगा ह्रदय मेरा पुलकित;

फ़िर दग्ध हुआ पुलकित ह्रदय
मेरा ताप, मेरा अभिशाप बना,
था जप रहा जो मंत्र मैं
किसी काल-मंत्र का जाप बना;

फ़िर धरा तपी, ये गगन तपा
और तपा ये जगत चराचर,
दग्ध ह्रदय मेरा टूट-टूट कर
लावा बन-बन बिखरा भू पर;

जगती जलकर भस्म हुई
मैं भी जलकर सूख गया,
ज्वाला अंदर की खत्म हुई
मैं अन्दर से टूट गया;

लज्जित मन में पश्चाताप भर
अस्ताचल में ढल रहा हूँ,
अतीत के पल को याद कर-कर
मदिर-मदिर मैं जल रहा हूँ;

एक चाँद चमकने दो कोई
जो जला हुआ उसे न जलाओ,
मैं एक ढलता सूरज ही
पर कोई तो दिया दिखाओ!!

Monday, February 06, 2006

प्रेम और बलिदान

पतंगा-चकोर-चातक सीरीज़ की पहली कविता....

मगन था उड़ने में वो पतंगा
मेरे घर के प्रांगण में,
थी जल रही वो अनल-ज्योति भी
उस घर के ही आँगन में;

अति-आकर्षण अग्नि-शिखा की
चुम्बकित किया उसे इस ओर ,
प्रेम की रोशन-रंगों में
होता गया वो सराबोर;

प्रेम की चंद झलक ही पाकर
ठाना उसने संग चलने का,
बारम्बार प्रयास मिलन के
गम न तनिक उसे जलने का;

मंत्रमुग्ध मैं था उसपर
उसने दिए मुझे ये विचार,
पलभर ही कोई करे प्यार
कर दूँ उसपर प्राण निसार.

पूर्णमासी थी वो शरद की
चाँद भी था अपने यौवन पर,
चलता-फिरता वो चकोर भी
बैठ गया किसी शिलाखंड पर;

मुस्कान जो देखी चाँद की उसने
तीव्र हुई उस दिल की धड़कन,
शशि की स्निग्ध किरण पाकर
व्याकुल मन ने की क्रंदन;

प्रेम की चंद दरश ही पाकर
प्रण किया उसने मिलने का,
किया इंतजार उस सर्द रात में
ग्लानि नही तनिक गलने का;

मंत्रमुग्ध मैं था उसपर
उसने दिए मुझे ये विचार,
पलभर ही कोई करे प्यार
कर दूँ उसपे प्राण निसार.

अपने उपवन की तरु डाली पर
चातक एक मैंने देखा था,
कैसे अपनी वो त्रास मिटाए
सोच मगन में लेटा था.

देखा ऊपर श्यामल मेघों को
था उन्मादित उसको तरसाकर,
जिसने थी उसकी प्यास बढ़ा दी
बूंदे दो जल की बरसाकर.

प्रेम की दो घूंटे ही पाकर
सोचा उसने ये मन भरने का,
पल-पल की प्रतीक्षा उसने
गम न तड़प-तड़प मरने का.

मंत्रमुग्ध मैं था उसपर
उसने दिए मुझे ये विचार,
पलभर ही कोई करे प्यार
कर दूँ उसपे प्राण निसार.

है प्रेम आज बदनाम धारा पर
प्रेम का कोई मूल्य नही है,
है प्रेम आज बदनाम सरासर
पर प्रेम सा कोई तुल्य नही है;

उस पतंग,चकोर,चातक ने
जो अपना आत्मबलिदान दिया,
प्रेम के व्यापक अर्थों का
मुझको सच्चा ज्ञान दिया;

वो राष्ट्र, राष्ट्र नही जब
जिनमें आत्मसम्मान न हो,
वो प्रेम भी प्रेम नही तब
त्याग-आत्मबलिदान न हो;

आभार व्यक्त करता मैं उनके
जिसने दिए मुझे ये विचार;
पलभर ही कोई करे प्यार
कर दूँ उसपर प्राण निसार।

प्रेम और भ्रम

पतंगा-चकोर-चातक सीरीज़ की दूसरी कविता ....एक नए अंदाज में....

अग्नि-शिखा की दीप्त किरण ने
प्रेम की छोड़ी थी पिचकारी,
अपने में था मगन पतंगा
देख के मारा था किलकारी;

देख अनल के उस रूप को
इस कदर हुआ लालायित,
समझ नही पाया था मैं
क्यों प्रस्तुत हुआ नाश हित;

झुलस गया अग्नि-लपटों में
बचने का नही मौका था,
बतलाया पर जलते-जलते
प्रेम नही वह धोखा था.

चाँद कयामत सा बनकर
चमक रहा नील-गगन में,
शांत सा बैठा चकोर भी
गूंज किया अपने क्रंदन में;

देख चाँद की उस आभा को
इस कदर हुआ आकर्षित,
समझ नही पाया था मैं
क्यों जीवन किया उत्सर्जित;

जम गया ओस की बूंदों में
बचने का नही मौका था,
बतलाया पर गलते-गलते
प्रेम नही वह धोखा था;

मेघ काली घटा को लेकर
नभमंडल में छाया था,
प्यास से व्याकुल चातक के
मन की उम्मीद जगाया था।

देख मेघ के उन्मादों को
इस कदर वह लिया आस,
समझ नही पाया था मैं
क्यों बना वह काल का ग्रास.

मरा त्रासित तड़प-तड़प के
बचने का नही मौका था,
बतलाया पर मरते-मरते
प्रेम नही वह धोखा था.

प्रेम-गली की प्रेम-डगर पर
प्रेम-दीवाने जो चलते हैं,
प्रेम-अगन की प्रेम-कुंड में
समिधा के सम वो जलते हैं;

प्रेम-युग के प्रेम-दीवानों
प्रेम का इतिहास जानो,
प्रेम-द्युत के प्रेम-कीडा में
कितनो का सर्वनाश मानो;

भस्म हुए सब प्रेम-चिता पर
बचने का नही मौका था,
बतलाये सब चलते-चलते
प्रेम नही वह धोखा था.

Tuesday, January 31, 2006

प्रेम-संवाद

orkut का एक यादगार संवाद...

विकास : हुश्न के झांसे में न आओ, मात खाओगे
ध्यान से देखो तो चाँद भी पत्थर का है.

अलोक: चाँद अगर पत्थर है तो क्या
देखो तो बादल सिर्फ़ धुँआ है.
चाँद भी तब-तब चुप जाता है
बादल ने जब-जब उसे छुआ है.

विकास: डालो भले ही फूल तुम...उस हँसी की राहों में
उसको मगर है यह यकीं...की हर डगर पत्थर का है.


अलोक: पत्थर की है हर डगर पर
चलना उसपर दूभर नही है
उन डगरों के हर पत्थर पर
इन फूलों को मैं बिछा दूंगा.

विकास: तिनके न तुम जुटाओ यूँ आशियाने के लिए...
चाहे दिखे या न दिखे, हर घर मगर पत्थर का है.


अलोक: महल भी हैं सब पत्थर के पर
रहना सारी उमर वहीँ है,
इन तिनको से आशियाने नही
उन महलों को सजा दूंगा.

विकास: nice lines.
keep it up!!

पर शायद विकाश सही थे...मेरी बातें तो वास्तविकता से परे थी.

तुम

तुम्हे तलाशा तरु-तरु में
कली-कली में,बाग़-बाग़ में,
नदी-नदी के लहर-लहर में
लहर-लहर के झाग-झाग में;

तुम्हे पुकारा डगर-डगर पर
गली-गली में,गाँव-गाँव में,
नगर-नगर के महल-महल में
महल-महल के छाँव -छाँव में;

तुम्हे सोचा चित्र-चित्र में
परियों के भी मित्र-मित्र में,
कथा-कथा के पात्र विचित्र में
सावित्री-सीता के चरित्र में;

तुम्हें पाया अपने चिंतन में
अपने मन में अपने चेतन में,
अपने ह्रदय के कम्पन में
अपनी नाडी के स्पंदन में।

Sunday, January 29, 2006

नन्हा-खिलाड़ी

तुमने मुझको छेड़ दी साकी
मैं ख़ुद पर ही शरमा गया,
मैं तो कुछ नही कह सकता
पर ये नन्हा खिलाड़ी आ गया.

गौर से देखो इस नन्हे को
और पूछो ये क्या कहता है,
मेरे ह्रदय के तार-तार में
ओ साकी बस तू रहता है.

बैठा मैं हूँ इस उपवन में
फूल खिले हैं सुंदर-सुंदर,
मुझे इन फूलों से क्या लेना
झाँक रहा मैं तेरे अंदर.

इस तरह मत देखो साकी
इस नन्हे की ओर कभी,
खाली हाथ अभी तक लौटे
जो गए इस ओर सभी.

अच्छा तो अब मैं चलता हूँ
धन्यवाद तुमको कहता हूँ,
माफ़ करना ये बच्चा है
पर दिल का बिल्कुल सच्चा है।

-what do I mean by this poem-

सपने जो पूरे ना हुए

चित्रों की ये विचित्र दुनिया मुझे बचपन से ही बहुत भाती थी. मेरी माँ कहती थी की जब मैं नन्हा था तो आँगन में लेटे-लेटे ही नन्ही उँगलियों से आसमान में अजीब-अजीब चित्र उकेरा करता था. धीरे-धीरे मेरी ललक तीव्र होती गई.....और एक दिन मैंने तुलिका उठा ही ली. फिर किसी जंगली जानवर की कल्पना करने लगा.
चित्र पूरा करने के बाद मैं बहुत खुश हुआ...और वो चित्र मैंने अपने एक अंकल को दिखायी और पूछा...
अंकल,अंकल आपको डर लग रहा है.
उन्होंने पहले तो चित्र को फिर मुझे विचित्र नजरों से घूरा और कहा....
भला मैं क्यों डरूं इस फल के चित्र से.
मैं उदास हो गया था क्योंकि मैं तो इसे बाघ समझ रहा था. जिसे बड़े लोग समझ नही पा रहे थे. मेरे अंदर का नन्हा चित्रकार उभरने से पहले ही कुंद हो गया था. मैंने इसके बाद कभी तुलिका नही पकड़ी .
दुनिया के रंग पन्नो पर दिखा न सके तो क्या;
हम तो अपनी कलम से भावनाओं को रंगते हैं।

Saturday, January 28, 2006

असफलता भी कुछ बतलाती है

असफलताओं से हम टूट क्यों जाते हैं,
जीवन से फ़िर हम रूठ क्यों जाते हैं.
आसपास के सफल माहौल को देखकर,
उस माहौल से हम उठ क्यों जाते हैं.

अगर हम बार-बार सफल होते तो,

अगर हम हर बार सफल होते तो

जीवन में तरंग ना उठ पाता,

परिवर्तन ना कोई रह पाता.
उस तालाब के जल की तरह,
स्थिर सा वह भी रह जाता.

फिर गति क्या रहती जीवन में,

राहों में कोई मोड़ ना पाते,
रह जाते चलते सीधी डगर पे,
अगर उसे ये तोड़ ना जाते.

बढ़ तो जाता फिर गरूर अपना,

चढ़ जाता कुछ शरूर अपना.
अपने को फिर हम आँक ना पाते,
औरों के अंदर झाँक ना पाते.

असफलताएं ये कुछ सिखलाती हैं,

मार्ग नए कुछ दिखलाती हैं.
दर्प-दंभ मन के अंदर है जो,
तोड़-तोड़ उसे बिखराती हैं.

ताकि तुम भी नव उमंग भर,

विधि को बस में करना सीखो.
सफलता की चोटी को छूने,
पत्थरों से भी लड़ना सीखो.

अन्दर की झिझक

बात है तब की जब मैं jnv में दाखिला लिया था,कक्षा का वो पहला दिन था ......

अध्यापिका और लड़के-लड़कियों से भरी उस कक्षा में मैं अपने आप को अकेला पा रहा था। पर मेरे अंदर के मनोभावों को वो समझ गई थी. वो मेरे पास आई और ...फिर स्नेहपूर्वक पूछी....चलो अपना नाम बताओ ...
अलोक..अ अ अलोक...मैंने बिल्कुल ही फुसफुसाते हुए कहा। मैं अंदर से काँप रह था.चलो कुछ जोर से कहो ताकि सब सुन सके...अद्यापिका बोली. मैंने जोर से बोलने की कोशिश की...पर मेरे शब्द गले से निकल नही पा रहे थे, अधर सूख सा गया था। मुझे दिन में भी तारे नजर आने लगे, मैं अपनी मनोस्थिति पर काबू नही रख पाया था.
वो मेरे झिझक को समझ गई....और स्नेह से बोली...चलो अपना नाम ब्लैक बोर्ड पर लिख दो. मैं वहा तक पहुँचा...पर ये क्या,मैं कुछ नही लिख पा रहा था। मुझे अपना नाम भी याद था और मुझे अच्छी तरह लिखना भी आता था । पर हाथों में अजीब कम्पन थी, दिल की तीव्र धरकन थी। एक झिझक ही थी वह जो मुझे ख़ुद को व्यक्त नही करने दे रही थी । मेरे दोस्त लोग मुझे समझे नही...और मैं अपनी झिझक का शिकार बन गया.
आज भी मेरे अन्दर वही झिझक बरक़रार है...और आज भी मेरे दोस्त मुझे समझ नही पाते हैं.....और मैं बार-बार शिकार बन जाता हूँ.

मैं और पत्थर

तुम सब मुझको समझे पत्थर
खुद मैं ही जब खाता ठोकर,
शायद मैं एक मोम भी था
देखा नही किसी ने छूकर ।

छुआ नही अब मत ही छूना
समझ मुझे एक पत्थर ही हूँ,
समझो मत मूझे मधु का प्याला
किसी काल का खप्पर ही हूँ ।

इस पत्थर को छू-छू कर
समय व्यर्थ न नष्ट करो,
खप्पर में मदिरा भर-भर
मदिरालय मत भ्रष्ट करो ।

गर पूजोगे इस पत्थर को
कभी मिले भगवान तुझे,
पर पढोगे इस पत्थर को
तभी मिले कुछ ज्ञान तुझे।

क्योकि पत्थर पर लिखा है
किसी बीती अतीत का वर्णन,
इस पत्थर में ही छुपा है
हर किसी का कष्ट निवारण।

पत्थर ही हूँ मैं तो क्या
बन चक्की ये जग पालूँगा,
खप्पर ही हूँ मैं तो क्या
सबके ऊपर छत डालूँगा।।

अभी तो सिर्फ शुरुआत है

अभी-अभी स्टार्ट किया हूँ
क्या कहूं अपने बारे में,
ये मेरी दुनिया है दोस्तों
जानो कुछ मेरे बारे में.